कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Monday, December 16, 2019

चाय की चाह


चाय के मीठे घूंट की शुरुआत मैया के पल्लू को दांतों में दबाये, उसके होंठों से लगे स्टील के ग्लास को उम्मीदों के साथ ताकने से हुई। फिर ये रूटीन कब फिक्स हो गया याद नहीं कि मैया के चाय के ग्लास के अंतिम कुछ घूंट पर मुक्कू का नाम रहेगा। शायद कभी एक दो बार मैया से गलती हुई और खाली ग्लास जमीन पर रखने पर उसको लगा, उफ्फ्फ ये क्या हुआ, भूल गयी। फिर हमने भी अपने रोने के सुर का वेवलेंथ इतना तेज किया कि उसके कंपन से पूरा घर सहित मैया भी कांप गयी व उन आंसुओं के धार में बहने लगी चाय की जरूरत| फिर तो एक छोटा सा कप या बचपन वाली छोटे स्टील की ग्लास में मेरे नाम का भी चाय बनने लगा, कभी कभी उस चाय के साथ एम्प्रो या मिल्क बिकीज का बिस्किट भी हुआ करता । वो अलग बात है कि इतने शुरुआती दौर से चाय का शौकीन होने के बाबजूद मन यही कहता कि "चाय ऐसी चाहिये जो दूधगर मिठगर होए" यानी अधिक दूध और होंठ चिपकने लायक मीठी चाय ही गांव में रहने के दिनों में पसन्द हुआ करती थी 😊
कॉलेज के दिनों में , सुबह-सुबह घर में बनी चाय के बदले सड़क तक जाकर अपने दोस्त खुर्शीद के छोटी सी दुकान से उसकी बनाई चाय और बिस्किट का मजा लेना भी अजीब नशा था, मुझे अभी भी लगता है उतनी शानदार चाय और कहीं नहीं पी, लगातार उबलते दूध की वो सौंधी महक नहीं भूलने लायक थी । साथ ही, बेवजह की पॉलिटिकल बहस भी यादगार हुआ करती थी। आजकल बड़ा आदमी हो गया मेरा ये चाय वाला दोस्त 😊
उन्हीं दिनों कॉलेज के सामने की झोपड़ी में मौसी की बनाई उफ्फ्फ वो, सबसे घटिया चाय 😊 जो खूब सारी चीनी, और धुएं के वजह से बनती थी और समोसा भी दिल के बेहद करीब था क्योंकि कोयले के धुँए में उबली चाय जैसा कुछ, को हम क्यों पीते थे पता नहीं, पर उस चाय के सहारे दूर तलक आती-जाती लड़कियों को ताड़ने पर बहस होती, उनका इतिहास-भूगोल क्या रसायन शास्त्र भी जान लेते थे । उनमें से बहुत सी हमें नहीं पहचानती पर हमारे रिश्ते में बेहद करीब होती । अपने खास दोस्त को पहले से शिनाख्त करवा देते - बेटा वो तेरी भाभी है, गर्दन नीची रख 😊!
छोटे शहर में हर बुजुर्ग चाचा होते हैं तो चौक पे उदय चाचा की मिठाई की दुकान पर खास कर मिट्टी के भांड में बनाई हुई चाय के जायके का अलग मजा था, ये बात भी याद दीगर है कि उन्हें 5 में से 4 बार चाय का पैसा ही नहीं देता, बस खिलखिलाते हुए चच्चा प्रणाम कह देता  कभी पैसे दिए भी तो वो इस तरीके से मुंह बनाते जैसे उनके हाथ में लिए पैसे का खबर चेहरे को भी नहीं है ।
कॉलेज से लौटने के क्रम में स्टेशन के साथ एक पहलवान भैया की चाय दुकान थी , वो उनदिनों लोहे के छड़ के एक सिरे को जमीन और दूसरे सिरे को अपने गर्दन में फंसा कर टेढ़ा कर देते और तो और दांत से ट्रक खींचने का माद्दा रखते थे। सच्ची है ये, शायद लिम्का बुक में भी दर्ज है उनसे भी कभी कभी फ्री की चाय मारते, बस् उनके बॉडी और बाइसेप्स के बारे में बड़ाई करनी पड़ती थी । महफूज की ड्रिंकिंग टी वाले बाहियात नोट्स पढ़ कर उस पहलवान भैया की याद आती है 😊
याद ये भी आ रहा, जाड़े के दिनों में चाय में अगर कॉफी छिड़क दो, तो चोफ़ी हो जाती थी  फिर अलग मज़ा व सुरूर!! वैसे ही इंसान में थोड़ी मेरी सी बेवकूफी हो तो वो भी सरल सहज सा लगने लगता है न ! वैसे इस चॉफी का टेस्ट अभी भी हम ट्राय करते रहते हैं। 😊
मुझे पटना के बाद ट्रेन पे मिलने वाली वो खास चाय , जिसको खराब से खराब चाय के नाम पर बेचा जाता या फिर रामकली चाय 👌 के नाम से बेचा जाता, खूब सारी इलाइची डली हुई वो दोनों चाय पहले घूंट में अच्छी लगती पर उतनी भी शानदार नहीं हुआ करती थी लेकिन हर बार ट्रेन यात्राओं में ढूंढ कर पीता हूँ 😊
दिल्ली में कॉफी बोर्ड या टी बोर्ड की चाय बेहद घटिया लगती है, चाय दूध चीनी आदि मिलाते मिलाते वो चाय रहती है नहीं है, बकरी का दूध लगने लगता है। पर दोस्तों के साथ उसका भी खास मजा है । कभी बेस्ट सेलर प्रकाशक शैलेश भारतवासी की बनाई निम्बू वाली चाय भी शानदार होती है, उनके घर जाने पर स्पेशल आर्डर कर के मंगवाते थे 😊
एक सच्ची बात ये है कि मैंने कैफे कॉफी डे में पहली बार कॉफी तब पी थी जब चौराहे वाली सीढियां फेम किशोर जी से मिलने गए थे। 'चौराहे पर सीढ़ियां' प्रकाशित होने वाली थी, मेरी नजर में वो चेतन भगत टाइप हुआ करते थे और उसके पहले तक मेरा ज्ञान कहता था कि चाय/कॉफी का अधिकतम मूल्य 20-25 रुपये ही हो सकता है। पर उस दिन जब मैनर्स दिखाते हुए मैं पे करता हूँ कहा और बिल काउंटर पर 5 कॉफी का जो बिल बताया गया, मेरे पसीने आ गए थे, क्योंकि किसी वजह से सिर्फ 500 रुपये ही थे और पूरा याद नहीं पर सारे पैसे खत्म हो गए थे 😊 वैसे डिप वाली चाय भी बेहद घटिया होती है ।
अंतिम में एक बात और, मैं अदरक वाली चाय या कॉफी अच्छी बनाता हूँ, और ये बात मेरी सबसे बड़ी आलोचक मेरी बीबी भी कहती है, इसकी मुख्य वजह शायद ये है कि बनी बनाई चाय इनदिनों मैडम को मिलने लगी है । और तो और जब सुबह ये ऑर्डर करते हुए कहती है, आज आपने चाय अभी तक नहीं बनाई, तो फिर मन करता है पानीपत की पांचवी लड़ाई किसी दिन लोधी कॉलोनी में होगी 😊
हाँ तो खूबी इतनी भी नहीं कि दिल में घर बना पाएंगे....पर अपने ठेठपन की वजह से भुलाना भी आसान नहीं ...इतना तो कह ही सकता हूँ 😊
तो चाय/कॉफी बनाने के ज्ञान से याद आया
"ज्ञान सबसे बड़ा धन है।"
फिर स्वयं से पूछा - मैं कितना धनवान हूँ ??
अंदर से आवाज आई - बेटा आप तो बीपीएल कार्ड धारक हो, इस मामले में , ज्यादा पकाओ मत 😊
वैसे आज कोई इंटरनेशनल वाला चाय का दिन है तो इतना ज्ञान पेलना बुरा भी नहीं।
हैप्पी चाय डे 😊
~मुकेश~

Saturday, August 31, 2019

प्रभात मिलिंद के शब्दों में


कोई छह महीने पहले हमारे व्हाट्सएप ग्रुप गूंज में मेरी कुछ कविताओं पर प्रभात मिलिंद जी ने यादगार टिप्पणी दी थी, जो कुछ वजहों से सहेजे हुए रखा था। आज पहले उनकी समालोचनात्मक प्रतिक्रिया और फिर अपनी वो कविताएँ पोस्ट कर रहा हूँ, जिस पर प्रभात जी ने अपनी बातें रखी थी  :

सबसे पहले मुकेश कुमार सिन्हा जी को कथादेश जैसी एक स्तरीय और प्रतिष्ठित पत्रिका में इन कविताओं के प्रकाशन की बधाई देता हूँ. कथादेश का मेरे जीवन में विशेष महत्व इसलिए भी है कि मेरी पहली कहानी इसी पत्रिका में छपी थी.

ईमानदारी से कहूँ तो बतौर रचनाकार मैं और मुकेश कुमार सिन्हा जी दो मुख़्तलिफ़ जॉनर के कवि हैं. इसके बावज़ूद उनकी कविताएँ और गद्यांश मुझे अच्छे लगते हैं और वक़्त मिलने पर सोशल साइट्स पर मैं उनको फॉलो भी करता हूँ. मेरी दृष्टि में वे मूलतः रोमान के कवि हैं. यहाँ मैं उस रोमान की बात बिल्कुल नहीं कर रहा जो प्रेम के रूढ़ प्रयायों के रूप में प्रयुक्त होता है. यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि वे एक आम जीवन की निष्ठुरता, कलुषता, भागमदौड़, विद्रूप और प्रतिकूलता के बरक्स जीवन के लिए ज़रूरी और अपेक्षित संतोष, सहजता, मनुष्यता और उत्सवधर्मिता के कवि हैं. यह हिंदी लेखन के लिए अनेक वैचारिक अन्तर्संघर्षों का समय है. कविताएँ अब विचारधाराओं के खांचों में रख कर लिखी जा रही हैं. कविताओं से अब संगीत के बजाए शोर और नारों की आवाज़ें प्रतिध्वनित होती हैं. बौद्धिकता और वैचारिकता के अतिभार से कविता अपने आधारभूत संस्कारों से निष्कवच होती जा रही है. अफ़सोस की बात यह है कि हमें भी इस ख़तरे का इलहाम नहीं. मैं स्वयं लेखन में एक स्पष्ट वैचारिकता का प्रबल पक्षधर हूँ. चाहूँ भी तो उनसे मुक्त नहीं हो सकता और न उनको खारिज़ ही कर सकता हूँ. विचारधारा मनुष्य की जीने की एक पद्धति है, लिहाजा कविताओं में भी उसका प्रवेश अनायास और स्वाभाविक रूप में होना चाहिए. सायास, आरोपित, सुविधाजनक और सीमित वैचारिकता कविता की अर्थबहुलता और उद्देश्य दोनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं. मुकेश कुमार सिन्हा जी की प्रस्तुत कविताएँ इन प्रदर्शनप्रिय बंधनों से मुक्त हैं इसीलिए वैचारिकता की धरातल पर अनगढ़ होकर भी भाव की दृष्टि से सहज और अच्छी हैं.

लेखन का लक्ष्य एक कोमल, संवेदनशील और सुंदर दुनिया की परिकल्पना है. इसलिए कविता के लिए भी सुंदर और कोमल होना उसकी बुनियादी शर्त है. ये कविताएँ इन शर्तों को निबाहने की कोशिश करती लगती हैं. कविताएँ आत्म-विलास का उपकरण नहीं होतीं, इस बात की साफ़ समझ कवि को है. और, यह एक महत्वपूर्ण बात है.

बेवजह होना अपने आप में एक सुखद और स्वस्थ मनःस्थिति है. 'वज़ह' के गणित में उलझ कर यह जीवन कब ख़र्च हो जाता है, हमें पता भी नहीं चलता. शायर को एक कलंदर होना चाहिए और कलंदर होने के लिए ज़ाहिरन वज़ह की ज़रूरत नहीं होती. हर संबन्ध और उपक्रम में कारण तलाशना हमारी एक प्रवृति बन गई है. लाभ-हानि की तार्किकता ने हमारे अंतर की प्रकृति और मन की पारिस्थिकी को स्थायी क्षति पहुंचाई है. बालसुलभ चुहलबाजियाँ कब हमारे भीतर से निकल भागीं और बाज़ार की गोद मे जा गिरीं, हम जान भी नहीं पाए.

दूसरी कविता को भी मैं पहली  कविता का ही विस्तार कहूँगा. बल्कि सच तो यह है कि तमाम उम्र हम एक ही लंबी कविता को खंड-खंड में लिखते रहते हैं. चौथी और आख़िरी कविता भी दाख़िल तो प्रेम में होती है लेकिन जब सुरंग के दूसरे सिरे से निकलती है तो अपने साथ-साथ वक़्त और तजुर्बों के तावील सफ़र की रेत भी साथ बहाती निकलती है.

तीसरी कविता का कंटेंट अलग है. यह शहरी मध्यमवर्ग की आत्ममुग्धता, संवेदनाओं के यांत्रिकीकरण, संबंधों और मनुष्यता के संत्रास और किस्तों पर हासिल किए गए कथित सुखों के संभ्रम का वृतांत है. यह कविता एकाकीपन को एकांत से अलग करके देखने की एक कोशिश है.

मुकेश कुमार सिन्हा जी की काव्य-भाषा बहुत चमकीली तो नहीं है लेकिन बहुरंगी अवश्य है. इसमें देशज से लेकर कॉस्मोपोलिटन शब्दावलियों का प्रयोग दिखता है. कहन का लहजा भी अधिक संश्लिष्ट, दुश्वार या रपटीला नहीं. हर लिखने वाले के पास उसकी सोच का अपना स्पेस और अभिव्यक्ति का अपना सलीका होता है जिनके बीच वह ख़ुद को सहज महसूस करता है. कमियाँ कहाँ हैं, इसका अन्वेषण भी उसे ही करना होता है. तात्कालिक संकेत संभव हैं लेकिन आलोचकीय हस्तक्षेप से दीर्घकालिक सुधार संभव नहीं. इन प्रयासों से रचना के मूल ढांचे और लेखन की मौलिकता दोनों के सामने संकट खड़े हो सकते हैं. मेरी दृष्टि में अपनी भाषा और अपना आकार कविता स्वयं निर्धारित करती है. कवि को इतना सजग अवश्य होना चाहिए कि इस निर्धारण में वह कविता के साथ खड़ा रह सके. मुकेश कुमार सिन्हा जी की भाषा विरल नहीं भी तो तरल अवश्य है. उनकी संवेदनाओं में एक आम आदमी की संवेदना शामिल है. कविताएँ मुझे अच्छी और असरदार लगीं. आलोचना के टूल्स ज़रा निर्मम और सैद्धांतिक होते हैं. उनके बेवज़ह प्रदर्शन को मैं आलोचकीय उत्पात और आतंक मानता हूँ. आलोचक भी एक निरीह जंतु होता है. समालोचना जहाँ बाध्यता या आवश्यकता हो, वहाँ उसे ज़रूर यह काम पूरी निष्ठा से अंजाम देना चाहिए. अन्यथा यह दुराग्रह कमोबेश वैसा ही है जैसे हम किसी ड्राइवर पर तफ़रीह के उसे लिए लांग ड्राइव पर भेजने का 'एहसान' करने की खुशफ़हमी पाल लें.

कदाचित लंबी टिप्पणी हो गई. क्षमा चाहूँगा. इन सुंदर कविताओं के लिए मुकेश कुमार सिन्हा जी को फिर से बधाई.

सादर।

✒ Prabhat Milind, जमालपुर

मेरी कविताएँ :

1⃣ वजह बेवजह

एक सिक्का ले कर
रहा हूँ उछाल
जिसके दोनों तरफ़
है लिखा हुआ 'वजह' और 'बेवजह'

बस वजह-बेवजह की संभाविता के मध्य
बेमानी से वजूद के साथ
निभाना चाहता हूँ अम्पायर की भूमिका
गिरते ही सिक्के को
बस इतना ही हाथों उठा कर कहूँगा
ओह नो! फिर 'बेवजह की बात'!

तो वो, सुनो!
फिर से बेवजह ही सही
निहारना मेरे भीगे पोरों के बीच छलकती नज़रों को
मैं भी बेवजह ही कह उठूँगा
क्या बात, आज भी उतनी ही खुबसूरत!

ऐसे ही बेवजह के संवाद के मध्य
खूबसूरती के बखान के साथ
संबोधित करूँगा 'मोटी'
और कभी कहूँगा 'बेवकूफ'!
पर तुम खिलखिलाते हुए
इन पर्यायवाची शब्दों में ढूंढ लोगी
आत्मीयता और स्नेह!

सच, शब्दों का सम्प्रेषण
बदल देता है उनके अर्थ
अजब-गजब रिश्ते जो ढूंढते हैं
किसी न किसी वजह को
रिसते हुए उनमें हरदम छलकते देखा है
मैंने दर्द

उनके साथ दौड़ते देखा है उम्मीद को भी
पर बेवजह के होते हैं कुछ रिश्ते
यहाँ भी छलकती है बूंदें उन्हीं आँखों से
पर छलकती हुई वो चमक उठती हैं
अनंतिम खिलखिलाते किसी वजह से

कल फिर से सिक्के को उछालूँगा
और दूर तक फैली हरीतिमा के मध्य
वजह और बेवजह की ध्वनि के साथ
सिक्के के गिरने से पहले ही
चुपके से फिर बेवजह का सिरा कर दूंगा ऊपर

तुम भी बेवजह खूबसूरत लगने लगना
आखिर बेवजह की बातों में वजह ढूंढना ही सबकुछ है
ताकि खिलखिलाती नज़रों का सुख
लगते रहे अपना
कल बेवकूफ का पर्यायवाची शब्द
बकलोल कहूँगा!
समझी न!

2⃣ लाल इश्क

सूखी टहनियों के बीच से
ललछौं प्रदीप्त प्रकाश के साथ
लजाती भोर को
ओढ़ा कर पीला आँचल
चमकती सूरज सी तुम
तुम्हारा स्वयं का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो-दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म
बेचारी दोपहर भी
करती है चुगली दिन और रात को
शायद जलनखोरी के मारे ही तो
तपती है दोपहरी
तभी तो जलनखोर से देखा न जा रहा
सौतिया डाह जैसा है न
चटख हो रही देख कर तुम्हे

वहीं
चमकता पुरनम की चाँद सा
तुम्हारा चेहरा
तुम्हारे होंठो पर तिल
हाँ चाँद में भी तो है न दाग
दिन बीता
अब गोधूलि के पहर पर
पार्क में दूर वाले पेड़ के पीछे से
आया भोर का तारा
मध्यस्थता करने को शायद
ताकि सूरज तारे चन्दा जैसे
खगोलीय नैसर्गिक पिंडो सा
समझा जाए तुम्हे भी
उतना ही प्यारा
उतना ही पवित्र
सच्ची में खूबसूरत हो न तुम
तुम तो सांझ की सहेली बन
मासूमियत के पैकिंग से लकदक
बस थिरको बच्चो संग
लाल फ्रॉक और पीले रिबन में
उनके मैदान में
मंकी बार्स पर लटकते हुए
और होंठ के कोने से पिघलती रहे
केडबरी सिल्क की कुछ बूंदे
मैं भी हूँ बेशक बहुत दूर
पर इस सुबह के
लाल इश्क ने
कर दिया न मजबूर
तुम्हे निहारने को !!

सुनो !
चमकते रहना !

3⃣ अमीबा

'अमीबा' हो गयी हैं
मरती हुई
संवेदनाएँ

पोखर, गड्ढे, तालाबों के
थमे हुए पानी में
बजबजाती फिर रही हैं
अमीबा

कुंकुआती आवाज़ वाले हॉर्न
दौड़ती भागती मेट्रो टैक्सियों के जाल में
बिना रुके बिना थके
कंकड़ पत्थर के जंगलों में
लौटने को आतुर
ये ज़िंदगी
प्रोटोप्लास्म की ढेर में सिमटी

परिजीवियों की तरह जीते हुए
अपने एक-कोशकीय जीवन को
आकार बदलती ज़िंदगी से
करते रहे हैं रूबरू
जी रहे हैं
कूपमंडूकता संजोये
जैसे प्रतिकूल मौसम में, शैल में स्वयं को बचाए
अमीबा सी हो गयी हैं न संवेदनाएँं

प्लास्टिक 'ओह! आह!' की
निकालते हैं आवाज़
बहा देते हैं जल धाराएँ
जैसे अमीबा ने आगे बढ़ने को
निकाले हों कूटपाद
समय और मौसम के अनुसार
परिवर्तित होती संवेदनाएँ
लोटपोट होतीं, विचरतीं

एक के मरने पर अट्टहास
तो एक के मरने पर
आंसू के दरिया बहाते
बढती है ताउम्र
अमीबा सी संवेदनाएँ

एक पल रोते
दूसरे ही पल हंस कर बता देते हैं
अमीबा सी टुकड़ों में बंट कर भी
कई केन्द्र्कों वाली परजीविता के साथ
जी रही है संवेदनाएँ

विलुप्तप्राय संवेदनाओं
शब्दों के मकड़जाल से
उलझकर
छलछलाती हुई
नमन/वंदन/आरआईपी (रीप) कहते
इतरा कर चल पड़ती हैं
नए प्रतिरूप की तरफ़

वाकई
अमीबा हो चुकी हैं
संवेदनाएँ!

4⃣ प्रेम का भूगोल

प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
विस्मृत करते झक्क दूधिया बादल तैर रहे,
मिलते हैं स्त्री-पुरुष
प्रेम का परचम फहराने
सलवटों की फसल काटने !
नहीं बहती हवाएं, उनके मध्य
शायद इस निर्वात की स्थापना ही,
कहलाता है प्रेम !

याद रखने वाला तथ्य है कि
अधरों के सम्मिलन की व्याख्या
बता देती है७
मौसम बदलेगा, या
बारिश के उम्मीद से रीत जाएगा आसमां !
समुद्र, व उठते गिरते ज्वार-भाटा का भूगोल
देहों में अनुभव होता है बारम्बार
कर्क-मकर रेखाओं के आकर्षण से इतर!

मृग तृष्णा व रेगिस्तान की भभकती उष्णता
बर्फीले तूफ़ान के तेज के साथ कांपता शरीर,
समझने लगता है ठंडक
दहकती गर्मी के बाद

ऐसे में
तड़ित का कडकना
छींटे पड़ने की सम्भावना को करता है मजबूत
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
बारिश के उद्वेग के बाद
है निकलना धनक का
कि जिस्म के प्रिज्म के भीतर से
बहता जाता है सप्तरंगी प्रकाश !

कुछ मधुर पल की शान्ति बता देती है
कोलाहल समाप्त होने की वजह है
हाइवे से गुजर चुकी हैं गाड़ियाँ
फिर
पीठ पर छलछला आए
ललछौंह आधे चांद, जलन के बावजूद
होती है सूचक, आश्वस्ति का
यानी बहाव तेज रहा था !

भोर के पहले पहर में
समुद्र भी बन उठता है झील
शांत व नमक से रीती
कलकल निर्झर निर्मल
और हाँ
भोर के सूरज में नहाते हुए
स्त्री कहती है तृप्त चिरौरी के साथ
कल रात
कोलंबस ने पता लगा ही लिया था
हिन्द के किनारे का !!

वैसे भी जीवन का गुजर जाना
जीवन जीते हुए बह जाना ही है
कौन भला भूलता है
'प्रवाह' नियति है !

✒ मुकेश कुमार सिन्हा

Monday, August 19, 2019

थेथर से होते थे न दोस्त



स्कूल - कालेज के दिनों में, कितने थेथर से होते थे न दोस्त ! साले, चेहरा देख कर व आवाज की लय सुनकर परेशानी भाँप जाते थे । एक पैसे की औकात नहीं होती थी, खुद की, पर फिर भी हर समय साथ खड़े रहते थे । और फिर फीलिंग ऐसी आती थी जैसे अंबानी/टाटा हो गया हूँ, पता नहीं किस किस से लड़ लेते थे। साले झूठ मूठ का पिटवा भी देते पर बाद में मलहम भी लगाने आ जाते, ऊपर से कमीने चाय भी पी जाते।
गाँव से 2 किलो मीटर दूर हाई स्कूल था, छोटा सा 4 कमरे का। छोटे से स्कूल में निक्कर पहने, बड़ी बड़ी कारस्तानी करते और वो थेथर दोस्त बड़े प्यार से अपना पीठ आगे कर देते......... काहे का फ्रेंडशिप बैंड, पजामे की डोरी से ही काम चल जाता था उन दिनों ☺️
पर उम्र के बढ़ते कदमों के साथ, ऐसी दूरी बन गई कि एक दूसरे के चिंता को भाँप कर भी अनदेखी करना तो दूर की बात है, ये तक नहीं पता कि इन दिनों कौन कहाँ क्या कर रहा, उसे भी कभी फिक्र है भी या नहीं। पर जिंदगी के रोडवेज़ पर ऐसे ही चल रहा सबकुछ, जो सहज सा लगता है अब......... है न यही सच !
वैसे भी दोस्तों से इतर, जिनको हम दुश्मन जैसा समझते हैं या जिनके लिए मन में जलन रखते हैं, सामान्यतः उनके पीछे भी उनके प्रति बदजुबानी दिखाते हैं।
पर कुछ से ट्यूनिंग पहले दिन से ऐसी होती है कि हर वक़्त बेवक्त उनके लिए स्नेह ही झड़ता है। ऐसे कुछ, जिन को हम बेहद अपना सा मानने लगते है, अपने बेहद करीबी परिधि में दिखने वाले ऐसे दोस्तों या ऐसे घरवालों के लिए सामान्यतः सामने से तो झिड़क देते हैं, लड़ लेते हैं या कोई ऊलजलूल सा सम्बोधन दे देते हैं या फिर अपने अनुसार ऑर्डर देने वाले जुबान में बात करते हैं पर अपने सभी कठिनाइयों के लिए भी पहले उन्हें ही ढूंढते हैं।
स्नेह जताने का ये अजब गजब तरीका सबसे अधिक मेरे में है। ऐसा ही घर वालों के साथ भी कर बैठते हैं। शायद कहीं इसको हक़ ज़माना भी कह सकते हैं | ऐसे दोस्त जैसे लोग कहीं भी हो सकते हैं, ऑफिस में, फेसबुक पर या घर वाले तो होते ही हैं |
हक जताने से याद आया, हमें खुद में बॉक्सर सी फीलिंग भी बहुत आती है और अपने बेहद करीबी यानी बेहद अपने से दोस्त पंचिंग बैग सी फीलिंग्स देते हैं । हम बेवकुफ, जब चाहे दे दमादम 😊, अपना सुनाने लगते हैं। शायद कहीं मेरे अंदर का शख्सियत धीरे धीरे उनपर अपना मालिकाना हक सा जताने लगता है। सही-गलत से इतर बात तब बस ये होती है कि उसको मेरी बात मान लेनी चाहिए | पर मानता कोई नहीं, ये भी पूर्णतया सच।
बहुतों बार, पंचिंग बैग भी रिटर्न किक बॉक्सर के चेहरे पर मार देता है। और चोट के परिमाण से इतर वो एकाएक लगने वाला किक बेहद घातक होता है। अंदर तक हिला देता है।
खैर, ऐवें हैप्पी फ्रेंडशिप डे कह कर खुद को खुश कर लेते हैं, कोई कैसा भी हो जाये, खुद को ख़ुश करने के लिए इतना तो सोच रखेंगे ही कि
मुझमे बेस्ट फ्रेंड मटेरियल भाव की अधिकता है
है न 😊😊😊
~मुकेश~ 💝


Wednesday, August 7, 2019

Runner up in Blogger of the Year 2019



पिछले ग्यारह वर्षों से ब्लॉग पर हूँ | "जिंदगी की राहें" के नाम से खुद की रचित कविताओं का ब्लॉग है | slow and steady के सिद्धांत पर रहा हूँ ! ब्लॉग पर बेशक पोस्ट करने के अंतराल में गैप रहता है लेकिन कोशिश रहती है लगातार अपडेट होती रहे ! इन्ही वजहों से साढ़े पाँच लाख का ट्रेफिक इस ब्लॉग के पन्नों से गुजरा है, जो शायद किसी एकल ब्लॉग में सर्वश्रेष्ठ होगा ! स्मृतियों में कुछ चटख रंग ढूँढने की कोशिश करूँ तो उनमें कुछ छींटे इस ब्लॉग ने दिये ! दो बार ब्लॉग के लिए ब्लोगोत्सव का अवार्ड पा चुका हूँ |
सुबह से धुकधुकी चल रही थी, iBlogger टीम ने घोषणा कर रखी थी कि आज वो विजेताओं की घोषणा करेंगे ! बेशक औसत हूँ, पर आंखो पर छमकते सपने हमारे भी हैं|
अंततः Blogger of the Year 2019 में उप विजेता के लिए चुना गया हूँ, विजेता डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी रहे हैं | आप सबके स्नेह के वजह से कोई भी ऐसा पुरस्कार सर माथे महसूस करता हूँ ! शुक्रिया सभी दोस्तों का, शुक्रिया iblogger टीम का 
( इस लिस्ट मे अपने कई दोस्तो को भी देख पा रहा हूँ दस टॉप bloggers में मित्र प्रीति 'अज्ञात' , Jyoti Dehliwal मिश्र प्रज्ञा व सुमन कपूर भी शामिल हैं, इन्हे भी बधाई)

iBlogger से प्राप्त Blogger of the year 2019 Award (Runner Up) का खूबसूरत सर्टिफिकेट अपने ब्लॉग 'जिंदगी की राहें' के वजह से, स्पीड पोस्ट से प्राप्त हुआ। 💐😊

Monday, May 27, 2019

नजफ़ खां का मकबरा

पिछले कुछ दिनों से मोर्निंग वाक के चक्कर में रूट बदल बदल कर लोधी कॉलोनी के हर कोने को देख रहा हूँ, महसूस रहा हूँ।  लोधी कॉलोनी और इसके इर्द गिर्द बेहद खुबसूरत हरियाली के साथ बहुत से जाने पहचाने स्मारक/बिल्डिंग/साईं मंदिर/गार्डन/स्टेडियम के साथ हेबिटेट सेंटर और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर भी स्थित हैं, इस वजह से हर नए दिन में नए रुट पे निकलना कुछ तो अलग फीलिंग भरता है ☺️...!
हर दिन कम से कम दो किलोमीटर पैदल चलूँ, इस हौसले के साथ निकलता हूँ | मेरे घर से करीबन डेढ़ किलोमीटर दूर नजफ़ खां का मकबरा के बारे में मित्र ने बताया, जो चार बाग़ के नाम से स्थानीय लोगों में पहचाना जाता है और ये एक खुबसूरत वर्गाकार पार्क के अन्दर स्थित है | तो इन दिनों कई बार इस मकबरे तक घुमने के लिए पहुंचा हूँ | खुबसूरत हरियाली व शांति में सिमटा ये मकबरा एक बेहद सामान्य से वर्गाकार दो तल वाले लाल पत्थर वाले महल में स्थित है | हमने तो बस इसके चारो और कई बार चक्कर लगाया | वो बात दीगर है कि ज्यादा कुछ खास नहीं लगा 😊|
बेशक नजफगढ़ बाहरी दिल्ली का एक पहचाना हुआ जगह है | पर जिस नजफ़ खां के नाम पर नजफ़ गढ़ है, उसका मकबरा लोधी कॉलोनी में सफ़दरजंग एअरपोर्ट के पास कर्बला क्षेत्र में स्थित है | विकीपीडिया बताता है मिर्ज़ा नजफ़ खां (1722-1772) मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के दरबार में एक फारसी एडवेंचरर था। इसके सफ़ावी वंश को नादिर शाह ने 1735 में पदच्युत कर दिया था जिस वजह से नजफ़ खां भारत 1740 में आया था। इसकी बहन का विवाह अवध के नवाब से हुआ था। इसे अवध के उप-वज़ीर का पद भी मिला था। मिर्ज़ा 1722 से मृत्यु पर्यन्त तक ये मुगल सेना का सिपहसालार रहा था। अप्रैल, 1772 में इसकी मृत्यु हुई।
मित्र Renuka Chitkara का कहना है, ये रात के समय haunted place कहलाता है 😊😊
~मुकेश~


Thursday, May 9, 2019

पांच लाख पेज व्यू (जिंदगी की राहें) और ब्लोगर ऑफ़ द इयर अवार्ड के लिए नॉमिनेशन



बात 2008 की थी, उन दिनों ऑरकुट का जमाना था, तभी एक नई बात पता चली थी कि "ब्लोगस्पॉट" गूगल द्वारा बनाया गया एक अलग इजाद है, जिसके माध्यम से आप अपनी बात रख सकते हैं और वो आपका अपना डिजिटल डायरी होगा | जैसे आज भी कोई नया एप देखते ही डाउनलोड कर लेता हूँ, तो कुछ वैसा ही ब्लॉग बनाना था। दीदी ने बताया था ब्लॉग भी गूगल की एक फेसिलिटी है जो एक तरह से इंटरनेटीय डायरी सी है। पहली पाठक भी वही थी।

ये सच्चाई है कि ब्लॉग के वजह से ही हिंदी से करीबी बढ़ी, टूटे-फूटे शब्दों में अपनी अभिव्यक्ति को आप सबके सामने रखने लगे। ये भी सच है पर कि इन दिनों ब्लॉग पर जाना कम हो गया है, फेसबुक पर संवाद ब्लॉग के तुलना में थोडा श्रेयस्कर है। पर, आज भी मेरा लिखा सब कुछ ब्लॉग पर देर सवेर पोस्ट होता है, बेशक हर रचनाकार के तरह उनको कागज़ पर प्रकाशित होना देखना चाहता हूँ ! पर मेरा ब्लॉग मेरे साहित्यिक जीवन की अमूल्य थाती है।

ये भी आज की सच्चाई है कि बहुत से नामी गिरामी साहित्यिक ब्लोग्स के बीच चुप्पी साधे मेरा ब्लॉग "जिंदगी की राहें" अपने पाठक संख्या में उतरोत्तर वृद्धि को दर्ज करते हुए पांच लाख पेज व्यू के बैरियर को पार कर गया है ! मेरा दूसरा ब्लॉग "गूँज...अभिव्यक्ति दिल की" है।

आंकड़े बताते हैं कि एक समय करीब 200 कमेंट्स तक पोस्ट पर आवागमन होता था जो किसी सामान्य हिंदी पत्रिका से कम नहीं था। आज भी ट्रैफिक की संख्या बताती है साइलेंट पाठक की संख्या में इजाफा हुआ है पर लोग प्रतिक्रिया देने से हिचकिचाते हैं।

अपने 382 फोलोवर्स की संख्या के साथ इस ब्लॉग ने कछुए के चाल के साथ अपने पाठक के संख्या (viewers) को पांच लाख पर करते हुए देख रहा है जो बहुत से सामूहिक ब्लॉग् मैगजीन के तुलना में भी बहुत आगे है, पिछले वर्ष हिंदी दिवस के ही दिन ये संख्या तीन लाख से ज्यादा थी | हर दिन करीबन 500 पाठक इस ब्लॉग पर आते हैं| तो इन वजहों से आज धीरे से कह पा रहा है कि गिलहरी के मानिंद हम भी साहित्यिक पुल को बनाने में लगे हैं।

इसी ब्लॉग से बने आकर्षण के वजह से आज मेरे हिस्से में भी दो तथाकथित बेस्ट सेलर, एक कविता संग्रह "हमिंगबर्ड", एक लप्रेक संग्रह "लाल फ्रॉक वाली लड़की" और छः साझा संग्रहों - कस्तूरी, पगडण्डीयाँ, गुलमोहर, तुहिन, गूँज और 100कदम का सह संपादन (अंजू चौधरी के साथ) है | करीबन 300 नए/पुराने साथियों को अपने साझा संग्रह के माध्यम से प्रकाशन का सुख दे पाए, जिसकी पहुँच भी ठीक ठाक रही | अब एक नया साझा संग्रह "कारवां" के नाम से लाने की योजना है, जो बस कार्यान्वित होने ही वाली है, प्रेस से आने की उम्मीद में पहले से ख़ुश हो रहे हैं | हिंदी से जुड़े अधिकतर पत्रिकाओं ने कभी न कभी कागज़ का कोई एक कोना मेरे नाम भी किया है | आल इंडिया रेडिओ/आकाशवाणी/टीवी के माइक के सामने अपनी हकलाती हुई आवाज भी रख पाया हूँ |

तो इन सबसे इतर बस ये भी जोर देकर कहना है - हाँ, इस ब्लॉगर के अन्दर छुटकू सा हिंदी वाला दिल धड़कता है, जो हिंदी की बेहतरी ही चाहता है !

अब ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर के लिए नॉमिनेशन मिली है, आपका स्नेह चाहिए !



Saturday, March 23, 2019

बचपन का डर


गाँव में कई बार रात को घुप्प अँधेरे में जाना होता, स्ट्रीट लाइट तो होती नहीं थी, टोर्च भी नहीं होता! जोश में कह देते कि जा रहे मैया पर कुछ कदमों बाद ही सारी अकड़ पल भर में ढ़ीली हो जाती ! पुरे रास्ते लगता कोई तो पीछा कर रहा ! खुद की छाया भी बड़ी परेशान करती ☺️ । अजीब तो ऐसे होता था कि घर से निकलने वाला हर रास्ता बियाबान मिलता ।
भूत! प्रेत!! डायन!!! ☺️
अरे वो वाली चाची तो नही या वो जो दूध देते थे, जो पिछले सप्ताह ही मरे ! बापरे ! मन ही मन भूतनियों को सफेद साड़ी में लिपटा कर अपने पीछे पीछे चलते हुए फील करने लगते। या तो कोई पेड़ या झाड़ी खड़कती तो डर से पेंट गिला होने सी स्थिति रहती ☺️
किसी का रास्ते में आ जाना शायद उतने डर का कारण नही था, डर तो सिर्फ "लगने" से हुआ करता था !
पूरा रास्ता काट कर जब तक फिर से मैया के पल्लू में न दुबकते, ये डर 'लगता' ही रहता! डर तो जैसे फेविकोल हुआ करता था जो घर से बाहर निकलते ही चिपक जाया करता। 😢
इसी डर ने उन दिनों संस्कृत को कुछ अपना बना लिया, आखिर देवभाषा जो थी ! जो भी चौपाई/दोहा/श्लोक याद होती या हनुमान चालीसा पूरे रास्ते बुदबुदाने लगते!
कई बार तो ऐसा हुआ 'राम' या 'देव' शब्द रूप को ही हर वचन/पुरुष में पढ़ जाते 
जैसे - राम, रामो, रामः......
हँसते हँसते या रोते रोते नही डरते डरते और बुदबुदाते बुदबुदाते कट जाया करते थे रस्ते 
~मुकेश~