गाँव में कई बार रात को घुप्प अँधेरे में जाना होता, स्ट्रीट लाइट तो होती नहीं थी, टोर्च भी नहीं होता! जोश में कह देते कि जा रहे मैया पर कुछ कदमों बाद ही सारी अकड़ पल भर में ढ़ीली हो जाती ! पुरे रास्ते लगता कोई तो पीछा कर रहा ! खुद की छाया भी बड़ी परेशान करती ☺️ । अजीब तो ऐसे होता था कि घर से निकलने वाला हर रास्ता बियाबान मिलता ।
भूत! प्रेत!! डायन!!! ☺️
अरे वो वाली चाची तो नही या वो जो दूध देते थे, जो पिछले सप्ताह ही मरे ! बापरे ! मन ही मन भूतनियों को सफेद साड़ी में लिपटा कर अपने पीछे पीछे चलते हुए फील करने लगते। या तो कोई पेड़ या झाड़ी खड़कती तो डर से पेंट गिला होने सी स्थिति रहती ☺️
अरे वो वाली चाची तो नही या वो जो दूध देते थे, जो पिछले सप्ताह ही मरे ! बापरे ! मन ही मन भूतनियों को सफेद साड़ी में लिपटा कर अपने पीछे पीछे चलते हुए फील करने लगते। या तो कोई पेड़ या झाड़ी खड़कती तो डर से पेंट गिला होने सी स्थिति रहती ☺️
किसी का रास्ते में आ जाना शायद उतने डर का कारण नही था, डर तो सिर्फ "लगने" से हुआ करता था !
पूरा रास्ता काट कर जब तक फिर से मैया के पल्लू में न दुबकते, ये डर 'लगता' ही रहता! डर तो जैसे फेविकोल हुआ करता था जो घर से बाहर निकलते ही चिपक जाया करता। 😢
पूरा रास्ता काट कर जब तक फिर से मैया के पल्लू में न दुबकते, ये डर 'लगता' ही रहता! डर तो जैसे फेविकोल हुआ करता था जो घर से बाहर निकलते ही चिपक जाया करता। 😢
इसी डर ने उन दिनों संस्कृत को कुछ अपना बना लिया, आखिर देवभाषा जो थी ! जो भी चौपाई/दोहा/श्लोक याद होती या हनुमान चालीसा पूरे रास्ते बुदबुदाने लगते!
कई बार तो ऐसा हुआ 'राम' या 'देव' शब्द रूप को ही हर वचन/पुरुष में पढ़ जाते
जैसे - राम, रामो, रामः......
जैसे - राम, रामो, रामः......
हँसते हँसते या रोते रोते नही डरते डरते और बुदबुदाते बुदबुदाते कट जाया करते थे रस्ते
~मुकेश~
अब तो भूत से ज्यादा आदमी से डर लगना शुरु हो गया है :)
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/03/2019 की बुलेटिन, " वास्तविक राष्ट्र नायकों का बलिदान दिवस - २३ मार्च “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबिल्कुल सही अनुभव लिखा है आपने।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com