चाभी वाले अलार्म घड़ी के आवाज पर उठकर, लंबे धारीदार ढीले पैजामे व बुशर्ट में निकलता था, हल्की फुलकी भोर के बीच तेज ठंडी हवा ..... चिड़ियों की आवाजें ... पत्तों पर ऑस की बूंदें ---- भिंगी घास की गंध और मिट्टी की ललछौंही पर पसरी गहरी शांति ........ तेज कदमों से चलते .... आखिर वही नदी के ऊपर का पुल .......... सफर का अंत होता था हर सुबह का, पहुँचने के लिए ! हर दिन यही लगता जैसे वो कल-कल दौड़ती - कूदती - भागती जलधारा बुला रही हो। और पहुँचते ही बस एक काम ........पूल से तांगे लटका कर नमी महसूसना !! लोहे के खंबे मे लटकते हुए कुछ बूंदें जैसे ही चेहरे से टकराती .......... एक प्यारी सी सुकून चेहरे पर आ जाती .......... ऐसे लगता जैसे सुबह सुबह नहा लिए !!
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बड़ा होता बचपन शायद प्रकृति में ही किसी को ढूँढता था अब महसूस रहा
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बड़ा होता बचपन शायद प्रकृति में ही किसी को ढूँढता था अब महसूस रहा