कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Wednesday, December 27, 2017

नूतन सिंह के नजरों में .......

सविता जाखड की पेंटिंग 

Nutan Singh कहती हैं :
सबसे खूबसूरत चीज हमारे नाक के नीचे ही होती है और अक्सर हम उससे बेखबर होते हैं।
हमारी मित्रता तकरीबन दो ढाई वर्ष पुरानी है लेकिन जैसा के मैंने ऊपर कहा, मैं fb की दुनियां में गुलाटियां लगाने में इतनी मशगूल थी के मुझे भान ही नही था के मेरे आस पास से ही बहोत कुछ कीमती छूटता जा रहा है, निकलता जा रहा है।
तकरीबन छः आठ महीने पहले यूँही fb पर स्केटिंग करते हुए मेरे पाँव एक जगह ऐसे रुके के मैं फिर वहां से कई दिनों तक हिल भी न पायी। और वो जगह थी मुकेश कुमार सिन्हा जी की वाल जिस पर उनकी एक कविता (कविता नही, बल्कि विदा होते हर लड़के का जिया हुआ यथार्थ) ने मुझे ऐसा लपेटा के मैं हफ़्तों उससे पीछा न छुड़ा सकी। आलम भी कुछ ऐसा था के जिस समय मैंने वो कविता पढ़ी उसके अगले दिन ही मेरा बेटा लम्बी छुट्टियों के बाद हॉस्टल विदा होने वाला था। मैं पूरे दिन उससे आंखें बचाती रही। ट्रेन के बाथरूम में तो नही लेकिन घर के बाथरूम में छुपके से टैप खोल जाने कितनी बार रोई....
खैर...
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी मुकेश जी जो
न सिर्फ कविताएं कहानियां लिखते हैं बल्कि वो एक बेहद मिलनसार उदार इंसान(तभी तो मुझे दो साल तक झेला) खुशमिजाज दोस्त, एक ऐसा दोस्त जिसके लिए दोस्ती ईमान है और लाल फ्रॉक वाली लड़की उनका प्यार जिसे आप उनकी कई कविताओं में उनके साथ रूहानी सफर और क्यूट रोमांस के साथ देखेंगे पढ़ेंगे.।
एक और बात, मुकेश जी हर वीकेंड रसोई खुद सम्भालते हैं। इनका केयरिंग नेचर इनके व्यक्तित्व को और खूबसूरत और यम्मी बनाता है बिल्कुल इनके बनाये और वेल गार्निशड डिशेज की तरह।
हां तो बात करती हूं उस कविता की जिसे पढ़कर मैं उतनी ही भावुक हुई थी जितनी कि गुलेरी जी की 'उसने कहा था' और धर्मवीर भारती का 'गुनाहों का देवता' पढ़कर ।
वैसे तो इनकी सारी रचनाएं एक से बढ़कर एक होती हैं लेकिन इस कविता को पढ़ने के बाद गर सारी कविताएं एक तरफ रख दी जाएं तो भी सिर्फ इस कविता के बिना पर हम इन्हें कभी नही भूल पाएंगे और निश्चित रूप से आप भी।
तो पढ़िए----
लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती है
कविताओं में
लेकिन कभी सोचियेगा,
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, सपनों के साथ
वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए जरुर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे
जबरदस्ती!
पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यम्भावी दौर में
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को, रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर ।
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं जोर की सांस
और फिर अन्दर तक अपने को समझा पाते हैं
कि, अब उन्हें अपना ध्यान रखना होगा अपने से
फिर अपने स्लीपर सीट के नीचे बेडिंग सरका कर
पांच रूपये में चाय का एक कप लेकर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके व्यस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर
कल तक,
हर बॉल पर बेवजह हाऊ इज देट चिल्लाने वाले
ये अजीब लड़के घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डब्बे के बाथरूम में जाकर फफक पड़ते हैं
ये लड़के !
ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर, रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बहाना बनाते है
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बन्द पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पोटली में बांध पकड़ाई थी
आखिर करें भी तो क्या
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियां
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच।
मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूर
आई विल कॉल यु लैटर
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को
हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर
ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी
खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हाँ नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उनपर
पर ये जिद्दी लड़के
घर से ताजिंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल
हाँ सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तहा कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की कोशिश करते हैं
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबकते हैं
मानों न
ये कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए उनके सपनों के साथ।
~मुकेश~
मुझे फक्र है के आप मेरे मित्र हैं मुकेश जी💐💐🙏
- शून्य
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अचंभित हूँ या कहूँ स्तब्ध 🙂 समझ नहीं पा रहा 😎 सोशल साइट्स पर अपने कविता को इतना प्यारा शेयर करता हुआ पहली बार देख पा रहा हूँ 😍 बेहद कन्फ्यूज्ड हूँ, क्या वाकई में इतना बेहतर लिखी गयी है ये कविता 😎 खैर जो भी हो, कोई लल्लू भी किसी एक दिन बहुत खुश हो सकता है ................तो बस मैं आज बहुत खुश हूँ, शुक्रिया नूतन .......thanks दोस्त  दिन बनाने के लिए 😊😍



😎




Monday, December 25, 2017

सुनहरे पल : अटल बिहारी वाजपेयी के सान्निध्य में


बात 25 दिसंबर 2003 की है, मेरी पोस्टिंग प्रधानमत्री कार्यालय के जनरल सेक्शन में हुआ करती थी. उस समय के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्मदिन था, छुट्टी का दिन था, मेरे ऑफिसर ने एक दिन पहले ही कहा था मुकेश तुम ही आ जाना और सारे अरेंजमेंट देख लेना, सारे सीनियर ऑफिसर्स शाम में प्रधानमन्त्री जी को बुके प्रदान करेंगे ! 
ज्यादा पुरानी नौकरी थी नहीं, और न ही उस समय फेसबुक जैसी कोई बुरी आदत थी, तो कुछ ज्यादा ही सीरियस हुआ करते थे काम के प्रति, उस ख़ास कार्यालय में पोस्ट होने के कारण अपने आपको एवें पीठ थपथपाते थे 
मुझे ये भी याद है मेरी प्रधानमन्त्री कार्यालय में पोस्टिंग के बाद जो पहली चिट्ठी पापा को लिखी थी उसमे बताया था कि पापा यहाँ तो बाथरूम में भींगे हुए हाथो को सुखाने के लिए भी गरम पंखे लगे हैं , यानी ऐसे बैकग्राउंड से दिल्ली पहुंचे थे ! 
हाँ तो लिली के बड़े से बुके के साथ हम इन्तजार कर रहे थे प्रधानमन्त्री के कमरे के बाहर कोरिडोर में, सारे ऑफिसर्स, जिनमे से तत्कालीन प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्र, सचिव एनके सिंह, सैकिया सर और सभी आ गए, करीब साढ़े पांच बजे आदरणीय अटल जी ने कमरे में कदम रखा, करीब चार पांच मिनट बाद संयुक्त सचिव सेकिया सर ने दरवाजे से मुंह निकाल कर हौले से कहा - मुकेश बुके लेकर आओ, !! मुझे लगा बुके उन्हें पकड़ाना है, वो लोग खुद ही देंगे, ऐसा ही होना भी चाहिए था !!
पर ये क्या, कमरे में घुसते ही, सबने अटल जी को घेर रखा था, सैकिया सर ने कहा - "दो बुके !!"
आश्चर्यचकित सा, एक क्षण को मेरी टाँगे कांपी, मैंने आगे बढ़ कर, बुके आदरणीय अटल जी को पकडाया, उन्होंने बस पकडे रखा, सबने तालियाँ बजाई, फिर मैंने ही बुके को साइड के टेबल पर रख दिया !!
उस समय कैमरा या सेल्फी होता नहीं था, फिर प्रधानमन्त्री कार्यालय में कैमरा बेहद जरुरी कारणों से ही आता था | ऐसे में मेरे लिए उस ख़ास क्षण को तस्वीर में कैद किया नहीं जा सका, पर हाँ, झपकते पलकों के अन्दर कहीं, सहेज कर रख लिया मैंने !! मैं तो बस कैरियर ही तो था बुके का, लेकिन आंतरिक ख़ुशी, बेवजह हो गयी, जो आज तक सहेजे हैं.... !!
जिंदगी के कुछ ऐसे ही बेवजह से हैं #सुनहरेपलमुकेशके  
हैप्पी बर्थडे अटल जी 
अटल जी की एक कविता, कविता कोश से ;
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

~मुकेश~