कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Friday, June 23, 2017

तोंद वाले बाबू का व्यायाम


हम तोंद वाले सामान्य सरकारी बाबू भी बेहद अजीब किस्म के संतुष्ट प्राणी होते हैं🙂
हम जमीन पे पड़े पेन या पेपर को उठाते हुए भी ऐसे दर्शाते हैं जैसे आज के 50 दंड बैठक जो करने थे, में से दो पूरे हो गए ।😂
किसी दिन बहुत कहने सुनने के बाद मोर्निंग वाक के लिए हाफ पैंट टीशर्ट स्पोर्ट्स शूज पहन कर तैयार होते ही ऐसा हमे लगता है जैसे दो किमी का ब्रिस्क वाक पूरा हो चुका, फिर पूरे घर का पोछा लगा चुकी पत्नी से ग्लूकोज वाटर की मांग करते हुए समझाते हैं कि कल पार्क का दो के बदले चार चक्कर पक्का।😍
वैसे कार से दूध/सब्जी/राशन लाना भी वॉक में ही कंसीडर होना चाहिए, ऐसा पत्नी को समझाते वक्त इस तरह की फीलिंग आती है जैसे सरकार को आठवीं पे कमीशन लागू करने के लिए गुहार लगा रहे हों 😘
बेशक कमर की वास्तविक साइज़ 44 हो पर हम पूरे दिन सांस भींचे और नाभि से तीन इंच नीचे तक पेंट का बकल लगाकर और बेल्ट खींच कर उसको 36 किये रहते हैं, और तो और शर्ट के दो लगातार बटन से मोटापे के वजह से मर्दाने नाभि का दिखना हम स्टेटस सिंबल समझते हैं। खाते पीते घर से बिलोंग करते हैं भाई, इतना फिटनेस तो जरुरी है न 😅
बाबा रामदेव के 70 प्रतिशत भक्त हम जैसे होते हैं जो उनके शिविर में तीन मिनट कपालभाति करके पूरे दस हजार भक्तों के बीच बताता है कि उसका 80 ग्राम भार बस इस तीन मिनट में कम हुआ और फिर सेवादार से 200 ग्राम अंगूर की मांग करते है। बेचारे बाबा भी कनखी मटकाते हुए पंतजलि का आंवला जूस दो चम्मच सुबह शाम लेने की सलाह देते हैं 😇
हम बाबू सच्चे रूप से सिद्धान्तः हेल्थ कॉन्सस होते हैं, लोगों के सामने बॉईल वेजिटेबल की बात करते हैं और घर लौटते समय बजट का ध्यान रखते हुए 400 ग्राम चिकन लेग पीस के साथ पहुंचते हैं और फरमाइश होती है कि घी में भुना जाए, कश्मीरी मिर्च डाल कर, थोड़ी दही जरुरी है, ताकि पाचन शक्ति बनी रहे🤣
आजकल ये सेल्फी वाले चक्कर ने भी समझा दिया है कि कैसे मोबाइल रखनी है, कैसे सांस अंदर कर सीना चौड़ा करना है, टीशर्ट के बाहों को समेटे हुए कैसे बाइसेप्स दिखाना है और फिर अपडेट करते समय पिक्चर कैसे क्रॉप करना है। बेहद भोले और दिलवाले हैं हम सामान्य से सरकारी बाबू 🤗
और हां, इसलिए रिटायर्ड होते ही बेहद जल्दी दिखाते हैं ऊपर पहुंचने में भी, ये एक बेहद सच्ची वाली कन्फेशन है 😎

जो भी कहेंगे दिल से कहेंगे, क्योंकि वही तो तेज धड़कता है, यही वजह है हमें सीजीएचएस के माध्यम से सरकारी खर्चे पर एंजियोप्लास्टी करवाने की भी जल्दी रहती है ना 😍😊




🙂

Wednesday, June 21, 2017

~अबेफेटोहमारमूत~


बेवकूफी से भरे इस शीर्षक को देख कर या तो आप मुस्कुराते हुए स्टेटस स्किप करेंगे या फिर गुस्से में कहेंगे, मुकेश पगलाया क्या 
पर बात कुछ उन दिनों की है, जब नौकरी पाने के कोशिश तो थी ही साथ ही हॉबी के रूप में क्वीज का नशा कुछ दोस्तों ने चढ़ा दिया था | तब मेरे मित्र मेरे हमनाम मुकेश ने कुछ हथकंडे अपनाए, ऐसे बहुत से नए-नए सूत्र इजाद किये ताकि बहुत से ऑब्जेक्टिव प्रश्नों का जबाब दिया जा सके ! अब जैसे अबेफेटोहमारमूत में अकबर के दरबार में रहने वाले नवरत्नों का नाम छिपा था  अबुल फजल, बीरबल, फैजी, टोडरमल, हकिम हुमाम, मान सिंह, रहीम, मुल्ला दो प्याजा, तानसेन ! ऐसा ही एक था जिसमे सभी विटमिन के साइंटिफिक नेम छिपे होते थे, यथा "AरेB1था2रा3नी5पे6पा12साCएDकेEटोKमेंHबा" | इस तरह के कई अजीब अजीब से हमने सूत्रों को रटा, बेवकूफों के तरह ! गणित में भी ऐसे ही ढेरों रीजनिंग लगाते रहे, आज वो सब कहाँ रह गया, पता नहीं, पर उन दिनों की स्मृतियाँ यादगार हैं |
अपने उस समय के बौद्धिक ग्रुप में फिर भी शायद सबसे कमजोर कड़ी मैं ही था, पढ़ाई में कम खिलंदड़ापन ज्यादा था मेरे में, बेशक किसी भी खास विषय पर पकड़ नहीं होता था, पर कभी कभी कोई बहुत ही कठिन प्रश्न का जबाब भक से मेरे मुंह पर आ जाता, विसुअल्स पर पकड़ थी . और साथ ही दोस्ती जिंदाबाद का नारा लगाते हुए उस समय भी सभी ब्रिलियंट दोस्तों का पेयर कभी न कभी बन कर, कुछ यादगार क्विज फाइनल्स तक की यात्रा की (क्विज में प्रतिभागी पेयर यानी जोड़े में होते हैं), जिसमे एक बार आल बिहार क्विज के फाइनल तक पहुंचना जहाँ यशवंत सिन्हा ने पुरस्कृत किया था! तो एक बार सभी शानदार क्विज के पेयर के बन जाने के बाद मैं और मेरे से थोडा बेहतर मेरा एक और मित्र संजय मालवीय ने मिल कर राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल किया था, वो खास चांदी का यादगार टुकड़ा आज भी अपने गोल्डन दिनों के रूप में सहेज रखा है मैंने ! वो छोटी सी पेपर कटिंग लेमिनेट करवा कर रख ली थी  । बहुत से अन्य क्विजों में मैं और मेरा मित्र मुकेश पार्टनर बनते और मुकेश स्क्वायर कहलाते 
प्रो.एम सी घोष सर के वरदहस्त से एक सोसायटी चलती थी - यूथ वेलफेयर सोसायटी, जहाँ हर शनिवार या रविवार को हम मिलते और फिर क्विज का दौर चलना पक्का रहता  उन वीकली क्विज में जीते हुए पेन भी वर्ल्ड कप जैसी फीलिंग्स देते थे। बाद में मैंने स्वयं आगे बढ़कर 'दस्तक' के नाम से एक सोसायटी बनाई, अपने छोटे से शहर के नए नए बच्चों में जीके का जीन भरने की अजीब सी कोशिश की | आज मेरा मित्र मुकेश बरनवाल इसी 'दस्तक' के नाम से इलाहाबाद में एक बहुत बड़े सिविल सर्विसेज और बैंकिंग/एसएससी इंस्टिट्यूट का निदेशक है ।
जिंदगी मेरी जैसी भी रही, हर उन दिनों को याद कर लिख सकता हूँ, जरूरी थोड़ी है कि सेलेब्रिटी बनने के बाद ही संस्मरण लिखा जाय 😊
~मुकेश~

Thursday, June 15, 2017

Shakeel Samar रचित "शर्तिया ISHQ"


Shakeel Samar रचित "शर्तिया ISHQ" के बारे में कुछ भी लिखने से पहले, लेखक के डिस्क्लेमर को कोट करना चाहूंगा - "......मेरी इस किताब को हिंदी साहित्य की कोटि में रखने की कोशिश न की जाये....... मैं जो लिखता हूँ उसे पॉपुलर फिक्शन कहते हैं"
तो अंजुमन प्रकाशन के इस पॉपुलर फिक्शन को बेशक़ मैंने कुछ महीने पहले ऑनलाइन 150 में खरीदा था पर बिहार के ट्रैन यात्रा के दौरान पढ़ने के शुरुआत की, और बस उपन्यास की रोचकता ने ऐसा जकड़ा कि किसी फंक्शन में आने के बावजूद दो दिन के अंदर अंत करने पर ही सुकून मिला।
फिल्मी परिदृश्य सा झारखंड के छोटे से खूबसूरत शहर जमशेदपुर के अधिकतर मोहल्लों, सड़कों या गलियों में घुमाते हुए, हीरो हीरोइन सरीखे कबीर सिन्हा और वाणी को लेकर प्रेम कहानी का ताना बाना बुना गया है, जिसमें कहानी को बालीवुड लुक देते हुए विलेन अभिषेक गौतम, को-एक्ट्रेस सरला भी है। और तो और, कहानी के अंत से पहले एक और हीरोइन संध्या सीन में आती है, ताकि कुछ और रस भरा जा सके। पर सच पूछिए तो एक पाठक के तौर पर मैने पूरी किताब जो बेहद सहज सरल शब्दों में लिखी है, पढ़ते हुए फुल एन्जॉय किया।
कबीर की हताशा और दर्द को पढ़ते हुए अंदर तक महसूस किया जा सकता है। नए दौर के कहानियों की तरह सेक्स/किस का छौंक इसमें बड़े सलीके से डाला गया है। जो इजली डायजेस्ट होता है। सबसे महत्वपूर्ण पक्ष वो चिठियों की सीरीज लगती है जो कबीर, वाणी के लिए लिखते हुए ये सोचता है कि इन्हें वाणी तक नहीं पहुंचना है। पहली चिट्ठी की शुरुआत में ही कबीर लिखता है "......किसी इंसान की सबसे बड़ी त्रासदी क्या होती है? जब उसे कोई प्यारा करने वाला न हो और किसी खत की सबसे बड़ी त्रासदी क्या होती है? जब उसे वह इंसान ही न पढ़ पाए जिसके लिए लिखा गया है....."। ये बात दीगर है कि लेखक का प्लॉट ऐसा है जिससे नायिका सभी चिट्ठियां पढ़ती है।
मनुष्य का जीवन अजीब सी त्रासदियों से भरा है कभी कभी जिसका इलाज जीवन के उस अंग को काटकर ही किया जाना संभव होता है, या फिर अपने को ही अलग थलग कर लेता है। मानवीय मक्कारियों और सामाजिक कुरीतियों के वजह से कबीर की बहन का अंत भी मार्मिक लगता है। आधुनिक संवेदना की एक संकेतात्मक प्रस्तुति एक नवयुवक कथाकार के द्वारा परोसा जाना दिल को छूता है।
ये बिल्कुल सच है कि फिक्शन के तौर पर सोच कर पढ़ें तभी आप इस उपन्यास का मजा ले पाएंगे। एक मनोरंजक मूवी के तरह इस उपन्यास को पढ़ने के लिए 150 रुपये का सौदा बुरा नहीं है ।
युवा कथाकार शकील को इस दूसरे उपन्यास के लिए दिल से बधाई।