कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Sunday, February 26, 2017

एक उम्मीद

मुझे लगता है, किसी भी कवि के शुरूआती दौर की कोई भी कवितायेँ बेहद संवेदनशील और दिल से निकले लफ्ज से रचे होते हैं, जिन्हें उनके साधारण पर टटके शब्दों और बेहद साधारण बिम्बों के आधार पर कचरा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है |
ठीक इसके उलट जब रचनाकार को शब्दों से खेलने का हुनर आ जाता है, तब बेशक उनकी कवितायेँ साहित्यिक दृष्टि से लुभाती है, पर उसमे संवेदनशीलता की कमी, मैंने हर समय अनुभव किया, फिर वास्तविक दुनिया में इन दोनों तरह के रचनाकारों को देखते ही लगता है, कौन कितना सच के करीब है !!
इसलिए मेरी नजरों में हर व्यक्ति जो अपने सोच को शब्दों के माध्यम से परोसता है, उसको किसी भी तरह से कचरा तो नहीं ही कहना चाहिए, क्योंकि शब्द ऊँगली और मन के तंतु के माध्यम से बहते हुए प्रवाह का एक दृश्य मात्र है, उसको सिर्फ पढ़िए नहीं, उस रचनाकार को भी सामने रखिये, फिर फील कर पायेंगे :)
बाकी तो पुस्तक मेले में बड़े नामों के किताब सजें हैं :)
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बस कुछ नवांकुरों के प्रकाशित किताबों पर पैसे खर्च कर उनके छलछलाते आँखों में देखिये, कैसे उसकी हाथे कांपेगी आपको स्व-हस्ताक्षरित प्रति देते हुए :) .........हमने स्वयं ये फील कर रखा है :) .........शुक्रिया बहुतों को ........आज भी !!

Sunday, February 5, 2017

सरस्वती पूजा: यादों में


जहाँ तक मुझे याद है, अपने आस-पास या माँ-पापा के लिए भी एक औसत विद्यार्थी ही था स्कूल से लेकर कॉलेज तक !! तो माँ सरस्वती के आशीर्वाद की जरुरत और उम्मीद भी बराबर बनी रही थी| आखिर खींच-वींच कर कैसे भी हर कक्षा में पास होना भी उतना ही जरुरी होता था | किताब में मयूर पंख रखना, कॉपी किताब को माथे से लगाना जैसा काम बराबर हुआ | मुझे आज तक समझ नहीं आया, मैंने क्यों बीएससी ओनर्स मैथ्स में किया | दिल्ली में नौकरी करने से पहले, करीबन दस वर्षों तक नाइंथ - टेंथ के बच्चों के लिए एक बढ़िया गणित शिक्षक होने के आलावा शायद ही कुछ उपलब्धि रही, अब तो पैसे भी इतने नहीं होते कि उनको जोड़ने वोड़ने के लिए भी गणित की जरुरत पड़े| चूँकि नौकरी चाहिए तो सामान्य ज्ञान (जीके) भी पढना होगा, तो बस इस उद्देश्य से कई सारी संस्था बनी/बनायी, जिसके वजह से जीके पर वर्चस्व थोडा बहुत बन पाए | 'दस्तक' के नाम से क्वीज व्वीज करने के लिए एक संस्था हमने भी बनायी, और अंत तक उसके सर्वे-सर्वा बने रहे :D
ओह टोपिक क्यों बदल रहा, हाँ बस इतना याद है अपने आईएससी करने के दौरान से लेकर दिल्ली आने तक हर वर्ष अपने दम पर यूथ वेलफेयर सोसाइटी / सरस्वती पूजा समिति टाइप कुछ बना कर माँ सरस्वती की मूर्ति स्थापना करते और तन-मन-धन से पूजा में लग जाते | तन-मन तो हमारा होता था, पर धन के लिए सिर्फ और सिर्फ चंदे का सहारा होता था :), बजट जितना भी हो, जब तक सड़कों पर ट्रक को रोक कर चंदा न वसूला जाए, तब तक वो फीलिंग ही न आ पाती की सरस्वती पूजा की जा रही है | अपने से छोटे बच्चों के साथ सरदार वाली फीलिंग आती, जब ट्रक को रोकने के लिए सड़क किनारे खड़े होते, वो बात दीगर थी, अधिकतर ट्रक बड़े सयाने ढंग से हमें स्किप करते हुए उड़ जाते, या फिर कुछ एक या दो के नोट को भिखारी विखारी टाइप से बढ़ाते हुए बढ़ जाते | लेकिन हमने तो शायद बस खुश होना सीख रखा था, पैसे कैसे और क्यों आ रहे, इसके लिए कौन सोचता, बस इतनी चिंता रहती, कि इस बात का पता न चले कि हमने ट्रक रोकने की जोखिम उठायी है :) | पूजा होगा तो कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी जरुरी होता था, मंच और पूजा के लिए पंडाल बनाने के उद्देश्य से माँ की साड़ियों की दुर्गति करना भी जरुरी होता था | साड़ियों में जहाँ तहां पिन लगा कर, खूब अपने मन की उड़ान देते ! वैसे हर बार, मंडप बस खुद को ही अच्छा लगता, क्योंकि इतना ही सुन्दर बन पाता था :)
मूर्ति विसर्जन के समय कंठ से आवाज भी खूब शोर करती :)
वीणा पुस्तक धारिणी की जय :)
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बस बेवजह की बातें आज याद आ रही थी, तो लिख डाली, अपना ही वाल है :) सौ बात की एक बात, जो भी थे, जैसे भी थे, बचपन से अब तक लोगो को साथ लेकर चलना अच्छा लगा.......... :) बहुते सोशल रहे :p
सरस्वती माता विद्या दाता :)