कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Wednesday, December 27, 2017

नूतन सिंह के नजरों में .......

सविता जाखड की पेंटिंग 

Nutan Singh कहती हैं :
सबसे खूबसूरत चीज हमारे नाक के नीचे ही होती है और अक्सर हम उससे बेखबर होते हैं।
हमारी मित्रता तकरीबन दो ढाई वर्ष पुरानी है लेकिन जैसा के मैंने ऊपर कहा, मैं fb की दुनियां में गुलाटियां लगाने में इतनी मशगूल थी के मुझे भान ही नही था के मेरे आस पास से ही बहोत कुछ कीमती छूटता जा रहा है, निकलता जा रहा है।
तकरीबन छः आठ महीने पहले यूँही fb पर स्केटिंग करते हुए मेरे पाँव एक जगह ऐसे रुके के मैं फिर वहां से कई दिनों तक हिल भी न पायी। और वो जगह थी मुकेश कुमार सिन्हा जी की वाल जिस पर उनकी एक कविता (कविता नही, बल्कि विदा होते हर लड़के का जिया हुआ यथार्थ) ने मुझे ऐसा लपेटा के मैं हफ़्तों उससे पीछा न छुड़ा सकी। आलम भी कुछ ऐसा था के जिस समय मैंने वो कविता पढ़ी उसके अगले दिन ही मेरा बेटा लम्बी छुट्टियों के बाद हॉस्टल विदा होने वाला था। मैं पूरे दिन उससे आंखें बचाती रही। ट्रेन के बाथरूम में तो नही लेकिन घर के बाथरूम में छुपके से टैप खोल जाने कितनी बार रोई....
खैर...
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी मुकेश जी जो
न सिर्फ कविताएं कहानियां लिखते हैं बल्कि वो एक बेहद मिलनसार उदार इंसान(तभी तो मुझे दो साल तक झेला) खुशमिजाज दोस्त, एक ऐसा दोस्त जिसके लिए दोस्ती ईमान है और लाल फ्रॉक वाली लड़की उनका प्यार जिसे आप उनकी कई कविताओं में उनके साथ रूहानी सफर और क्यूट रोमांस के साथ देखेंगे पढ़ेंगे.।
एक और बात, मुकेश जी हर वीकेंड रसोई खुद सम्भालते हैं। इनका केयरिंग नेचर इनके व्यक्तित्व को और खूबसूरत और यम्मी बनाता है बिल्कुल इनके बनाये और वेल गार्निशड डिशेज की तरह।
हां तो बात करती हूं उस कविता की जिसे पढ़कर मैं उतनी ही भावुक हुई थी जितनी कि गुलेरी जी की 'उसने कहा था' और धर्मवीर भारती का 'गुनाहों का देवता' पढ़कर ।
वैसे तो इनकी सारी रचनाएं एक से बढ़कर एक होती हैं लेकिन इस कविता को पढ़ने के बाद गर सारी कविताएं एक तरफ रख दी जाएं तो भी सिर्फ इस कविता के बिना पर हम इन्हें कभी नही भूल पाएंगे और निश्चित रूप से आप भी।
तो पढ़िए----
लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती है
कविताओं में
लेकिन कभी सोचियेगा,
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, सपनों के साथ
वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए जरुर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे
जबरदस्ती!
पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यम्भावी दौर में
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को, रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर ।
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं जोर की सांस
और फिर अन्दर तक अपने को समझा पाते हैं
कि, अब उन्हें अपना ध्यान रखना होगा अपने से
फिर अपने स्लीपर सीट के नीचे बेडिंग सरका कर
पांच रूपये में चाय का एक कप लेकर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके व्यस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर
कल तक,
हर बॉल पर बेवजह हाऊ इज देट चिल्लाने वाले
ये अजीब लड़के घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डब्बे के बाथरूम में जाकर फफक पड़ते हैं
ये लड़के !
ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर, रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बहाना बनाते है
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बन्द पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पोटली में बांध पकड़ाई थी
आखिर करें भी तो क्या
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियां
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच।
मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूर
आई विल कॉल यु लैटर
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को
हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर
ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी
खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हाँ नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उनपर
पर ये जिद्दी लड़के
घर से ताजिंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल
हाँ सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तहा कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की कोशिश करते हैं
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबकते हैं
मानों न
ये कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए उनके सपनों के साथ।
~मुकेश~
मुझे फक्र है के आप मेरे मित्र हैं मुकेश जी💐💐🙏
- शून्य
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अचंभित हूँ या कहूँ स्तब्ध 🙂 समझ नहीं पा रहा 😎 सोशल साइट्स पर अपने कविता को इतना प्यारा शेयर करता हुआ पहली बार देख पा रहा हूँ 😍 बेहद कन्फ्यूज्ड हूँ, क्या वाकई में इतना बेहतर लिखी गयी है ये कविता 😎 खैर जो भी हो, कोई लल्लू भी किसी एक दिन बहुत खुश हो सकता है ................तो बस मैं आज बहुत खुश हूँ, शुक्रिया नूतन .......thanks दोस्त  दिन बनाने के लिए 😊😍



😎




Monday, December 25, 2017

सुनहरे पल : अटल बिहारी वाजपेयी के सान्निध्य में


बात 25 दिसंबर 2003 की है, मेरी पोस्टिंग प्रधानमत्री कार्यालय के जनरल सेक्शन में हुआ करती थी. उस समय के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्मदिन था, छुट्टी का दिन था, मेरे ऑफिसर ने एक दिन पहले ही कहा था मुकेश तुम ही आ जाना और सारे अरेंजमेंट देख लेना, सारे सीनियर ऑफिसर्स शाम में प्रधानमन्त्री जी को बुके प्रदान करेंगे ! 
ज्यादा पुरानी नौकरी थी नहीं, और न ही उस समय फेसबुक जैसी कोई बुरी आदत थी, तो कुछ ज्यादा ही सीरियस हुआ करते थे काम के प्रति, उस ख़ास कार्यालय में पोस्ट होने के कारण अपने आपको एवें पीठ थपथपाते थे 
मुझे ये भी याद है मेरी प्रधानमन्त्री कार्यालय में पोस्टिंग के बाद जो पहली चिट्ठी पापा को लिखी थी उसमे बताया था कि पापा यहाँ तो बाथरूम में भींगे हुए हाथो को सुखाने के लिए भी गरम पंखे लगे हैं , यानी ऐसे बैकग्राउंड से दिल्ली पहुंचे थे ! 
हाँ तो लिली के बड़े से बुके के साथ हम इन्तजार कर रहे थे प्रधानमन्त्री के कमरे के बाहर कोरिडोर में, सारे ऑफिसर्स, जिनमे से तत्कालीन प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्र, सचिव एनके सिंह, सैकिया सर और सभी आ गए, करीब साढ़े पांच बजे आदरणीय अटल जी ने कमरे में कदम रखा, करीब चार पांच मिनट बाद संयुक्त सचिव सेकिया सर ने दरवाजे से मुंह निकाल कर हौले से कहा - मुकेश बुके लेकर आओ, !! मुझे लगा बुके उन्हें पकड़ाना है, वो लोग खुद ही देंगे, ऐसा ही होना भी चाहिए था !!
पर ये क्या, कमरे में घुसते ही, सबने अटल जी को घेर रखा था, सैकिया सर ने कहा - "दो बुके !!"
आश्चर्यचकित सा, एक क्षण को मेरी टाँगे कांपी, मैंने आगे बढ़ कर, बुके आदरणीय अटल जी को पकडाया, उन्होंने बस पकडे रखा, सबने तालियाँ बजाई, फिर मैंने ही बुके को साइड के टेबल पर रख दिया !!
उस समय कैमरा या सेल्फी होता नहीं था, फिर प्रधानमन्त्री कार्यालय में कैमरा बेहद जरुरी कारणों से ही आता था | ऐसे में मेरे लिए उस ख़ास क्षण को तस्वीर में कैद किया नहीं जा सका, पर हाँ, झपकते पलकों के अन्दर कहीं, सहेज कर रख लिया मैंने !! मैं तो बस कैरियर ही तो था बुके का, लेकिन आंतरिक ख़ुशी, बेवजह हो गयी, जो आज तक सहेजे हैं.... !!
जिंदगी के कुछ ऐसे ही बेवजह से हैं #सुनहरेपलमुकेशके  
हैप्पी बर्थडे अटल जी 
अटल जी की एक कविता, कविता कोश से ;
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

~मुकेश~

Tuesday, November 14, 2017

चाचा नेहरु


आज बाल दिवस है, ये दिन हम भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन पर मनाते हैं ।
हर व्यक्तित्व मे बहुत सी अच्छाइयों के साथ ही ढेरों बुराइयाँ भी होती है, पर हम भारतीयों में एक नेक सोच ये है कि हम सामान्यतः किसी के मृत्यु के बाद उसके अच्छे गुणों के लिए याद करते हैं, न की उसकी बखिया उधड़ते हैं! नेहरु जी में क्या क्या बुराइयां थी, ये या तो इतिहास का विषय है या फिर उनका बेहद पर्सनल मैटर है, पर याद रखने वाली बात है कि उन्हें ग्यारह बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया | याद रखने लायक बात है अपने पूर्ण जीवन में वे नौ बार जेल गए। पंडित नेहरु को 'आधुनिक भारत का निर्माता' कहा जाता है | दूसरे विश्व युद्ध के बाद आर्थिक रुप से ख़स्ताहाल और विभाजित हुए भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था | भाखड़ा नांगल बाँध, रिहंद बाँध, भिलाई, बोकारो इस्पात कारख़ाना, एम्स, इसरो आदि का निर्माण शायद ही आज कोई याद रख पा रहा है |
नेहरु द्वारा रचित 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' और 'ग्लिम्पसेस ऑफ़ द वर्ल्ड हिस्ट्री' ऐसी अदभुत किताबें हैं जो बताती है कि नेहरु क्या थे | जेल में रहते हुए बिना किसी संदर्भ के और इतिहास लेखन की विधिवत ट्रेनिंग लिए बिना उन्होंने इंदिरा गाँधी को जो पत्र लिखे और दुनिया के पाँच हज़ार साल के इतिहास को जिस सलीक़े से उन्होंने 'ग्लिम्पसेस ऑफ़ द वर्ल्ड हिस्ट्री' में लिखा वो उनकी अद्भुत क्षमता बताती है |
हालांकि अंतिम समय में नेहरु को कुछ ऐसे नाकामियों को झेलना पड़ा, जिसके वजह से देश बहुत बड़े संकट में आया | हालांकि चीन के साथ दोस्ती की पहल उन्होंने काफ़ी ईमानदारी से की थी और पंचशील के सिद्धांत के साथ-साथ हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा दिया लेकिन 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला हम सब एक बहुत बड़ी ऐसी हार के रूप में देखते हैं, जो टीस देता हुआ घाव हो |
भारत में बहुत गरीबी है, बहुतों को भूखा रहना पड़ता है, और तो और अब तो प्रदुषण ने भी जान निकाल रखी है पर फिर हम कहाँ मानते हैं हम फिर भी दिवाली मनाते हैं न, पटाखे चला कर पैसे बर्बाद भी करते हैं, तब नहीं सोचते की इन पैसों से कुछ का पेट भर सकता था ... कुछ लोग अभी भी गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं, फिर भी हम स्वतन्त्रता दिवस मनाते हैं, है न !! तब तो नहीं सोचते ऐसा ..........
फिर आज क्यों ?? आज क्यों न खुश होना चाहिए, कुछ नेताओं को क्यों नहीं दलगत राजनीति से इतर रखा जाये |
क्या नेहरू को हम उनके बेहतरीन व्यक्तित्व के लिए नहीं याद कर सकते ?
क्या आज हम बच्चो में कुछ पलों की मुस्कुराहट दे कर, खुद को खुश नहीं कर सकते ??
___________________________
बाल दिवस की ढेरों शुभकामनायें !!
सबों को बच्चों सी खिलखिलाती नैसर्गिक मुस्कराहट मिले ऐसी दुआ 
~मुकेश~

Wednesday, October 4, 2017

'जिंदगी मने दुख'



'जिंदगी मने दुख' - खुशियों के चारदीवारी में बेशक आप बसते हों, बेशक आंखे खुलते ही आप जो चाहते हों वो सामने हो और तो और नींद के आगोश में जाने पर भी सपने भी वही देखते हैं जो आपके चेहरे पर सिर्फ मुस्कुराहटें लाती हो फिर भी हर एक हल्की सी टीस पर तुरंत मन कह उठता है इस पत्थर को भी मेरे ही रास्ते आना था क्या, उफ्फ।
खैर, वैसे भी जब आप बेवजह परेशान होने लगते हो तो आपको खीर के कटोरी में भी कंकड़ मिलना तय हो जाता है । फिर तो खीर के मिठास के स्वाद के बदले हर पल आप चावल को ऐसे दबाते हैं जैसे कोई पत्थर दोनों दांतों के बीच हो | हर मेहनत के तत्क्षण जो अंदर से स्वयं के लिए "वाह" निकालना चाहते हो वो पलक झपकते ही एक अक्षर बदल कर "आह" में बदल जाता है - ताकि अंदर संतुष्टि हो कि चलो अभी दर्द का मौसम लगातार चलेगा ।
"एक चित्रकार से दिल के दरवाजे कि तस्वीर बनाने कहा गया, उस ने बहुत हसीन दरवाजा बनाया, लेकिन उसका हेंडल नहीं था.....
किसी ने पूछा दरवाजे में हेंडल क्यूं नहीं लगाया..
तो वो बोला दिल का दरवाजा अन्दर से खोला जाता है.. बाहर से नहीं.." ,
बेवकूफ चित्रकार था, उसको क्या पता हम सबके दरवाजे की चिटखनी ही अटकी हुई है।
इनदिनों पता नहीं क्यों हम सब अपने छत के आसमान को नैसर्गिक रूप में नहीं देख पा रहे, नजरें कहती है आसमान ज्यादा ही स्याह लगने लगा है। यानी दर्द ज्यादा ही महसूसने लगे हैं हम| मन कहता है तू तो बहुत जिगरा वाला है, पर इनदिनों जो मानसूनी बयार बह रही है, वो अपने साथ अजब गजब खेल रचते हुए बह रहा है, बता रहा कभी कभी परेशान होना भी सीख ले बेटा। पर परेशान ही होना, पराजित नहीं। हम निम्न माध्यम वर्गीय परिवारों से जुड़े लोगों के उम्मीदें भी तो छतीस होती हैं, बेचारा भगवान् भी खीज कर कह उठता है एक तो लड्डू चढ़ाते हो वो भी तोड़ कर, और ये भी वो भी, फलाना ढीमाका सब के सब पूरी फाइल बना कर लाते हो .......जाओ कैंसिल करता हूँ तुम्हारे इन उम्मीदों को चार्ट, एवें परेशान न करो | बेचारा भग्गू भी ज्यादा ही तड़ी देते हुए कह उठता है -
कितने कमजर्फ हैं ये गुब्बारे
चंद साँसे पाकर फूल जाते हैं
पर जरा सा ऊंचाई पाकर
सब भूल जाते हैं ........
कुछ गुब्बारे किस्म के इंसान सी फीलिंग रहती है हम निम्न मध्यम वर्गीय व्यक्तियों में ।
ले दे कर दोस्त बचते हैं, तो उनमे भी रियल वाले दोस्त जिनके बीच कभी शहजादे वाली फीलिंग हुआ करती थी, वो भी सब बूढ़े हो गए अपने अपने वजहों से और अपने दर्द की कटोरियों या बक्सों को ही सहेज रहे तो उनके पास अब शब्द भी कहाँ होते हैं जो कह उठे - हम हैं न तेरे साथ | इतना कहने भर से भी शायद खिलखिलाहट का टोकरा उमड़ पड़ता अपने 'हा हा हा हा' वाले ठसक आवाजों से । मन कह उठता है - जिसके कंधे पर बैठकर दरिया पार करना सोचा था
उसके तो खुद के घुटने दर्द से कराह रहें हैं ।
हाँ इस सोशल मिडिया ने दोस्तों की पांच हजारी लिस्ट पकड़ा रखी है, उनमे से भी पता नहीं कौन से वजह बेवजह वाले अहसान हमने समेट रखा है जो नजर मिलते ही गुर्रा उठते हैं - पहले वाला अहसान तो उतारों जो नए दर्द का खेवनहार बन जाएँ हम | बेवजह दोस्ती जिंदाबाद के नारे के साथ झंडा उठाने चला था, अब झंडे का डंडा ही बचा रहा गया |
अंततः खुद पे है भरोसा, खुद में है दम ! वन्दे मातरम् !!
बस एवें अक्कड़ बक्कड़ बम्बई बो, अस्सी नब्बे पुरे सौ ..............खुद को समझ बैठे हैं, जिंदगी न तो बह रही न थम रही, बस ईएमयु ट्रेन के तरह, स्पीड पकड़ने से पहले ही अगले स्टेशन पर धचक से रुक जाती है .........और तो और चेन पुलिंग का भी पूरा बंदोवस्त है | बस देखते हैं कब परमानेंट वाला हैप्पी बड डे होता है ........... !!
"कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे ............उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे "
~मुकेश~

शिल्पी के द्वारा बनायी पेंटिंग हमिंगबर्ड

Friday, July 28, 2017

हमिंगबर्ड की समीक्षा : स्मिता सिन्हा के शब्दों में



" हमिंग बर्ड "
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कुछ किताब वक़्त की दस्तावेज़ होती हैं ,तो कुछ मन की और जब 5 मिलीग्राम का छुटकू सा मन अपनी बात करेगा तो क्या क्या करेगा !! वही सपनों की बातें ,अपनों की बातें ,ज़िंदगी की जद्दोजहद की बातें..........
बातें उलझनों की ,जकड़नों की........बातें मुक्ति के लिये छटपटाती सांसों की ,ताकि परों को मिल सके उनके हिस्से की उड़ान और बस एक टूकड़ा आसमान ।मेरे बेहद अजीज मित्र Mukesh Kumar Sinha का पहला काव्य संग्रह ' हमिंग बर्ड ' ऐसी ही स्पंदित भावनाओं का खाका है । हालांकि बहुत ही लम्बा वक़्त ले लिया मैंने इसे पढ़ने में, जबकि हिन्दी युग्म से प्रकाशित इस संग्रह का दूसरा संस्करण भी बाज़ार में आ चुका है ।खैर......
कहते हैं कविताएँ कभी शून्य में नहीं रची जातीं।उनमे अपने समकालीन हालात और सरोकारों के प्रति सजगता निहित होती ही है ।मुकेश मेरे सामने आपकी कविताएँ यूँ आती गयीं ,जैसे मैं स्वयं गुज़र रही हूँ शब्दों की कतार से ।आपकी कविताओं में एक राहत है और सुकून भी......सवाल हैं और झन्झावत भी ।थोड़े से शब्दों के साथ जीवन के विभिन्न आयामों में देखने का आपका प्रयास काबिलेतारीफ है ।आपके ही शब्दों में.....
क्योंकि कबूतर के फड़फड़ाते पंखों पर
उम्मीदों की ऊँची उड़ान
मुझे दे गया अपने हिस्से का
एक टूकड़ा आसमान
आज ख्वाबों में
शायद कल
होगा इरादों में
और फ़िर
वजूद होगा मेरा
मेरे हिस्से का आसमान......
कृत्रिमता और बनावट से दूर.......बेहद सरल और सहज भावनाओं की अद्भुत बानगी दोस्त ।शब्दों के साथ कहीं कोई आंतरिक प्रयोग नहीं ,कोई तोड़ फोड़ नहीं ।बस यहीं सम्प्रेषणियता बांधती है मुझे आपकी कविताओं से ।आपने उसी परिवेश ,परिस्थिति ,चरित्रों और सपनों का कोलाज तैयार किया ,जिनमें से हमारी जिंदगी भी झांकती है ।मानव मन को बड़ी प्रखरता से उद्घाटित करती हुई कविताएँ......जटिल से लगने वाले रिश्तों को बड़े कायदे से खंगालने की कोशिश ,ताकि उनपर कोई खरोंच न आये ।आप ही कहते हैं ना........
मैंने नहीं देखा
हमिंग बर्ड
अब तक
तो क्या हुआ !
मैंने प्यार और दर्द भी नहीं देखा
फ़िर भी
लिखने की कोशिश कर चुका उनपर
बन ही जाती है कविता........
मैं कहूँ कविता में कभी कोई नाप जोख ,हिसाब किताब ,नफ़ा नुकसान की बातें नहीं होतीं ।वो तो एक चाह होती है ,एक सब्ज ख़याल ,कुछ बातें वजह बेवजह की........और बन जाती है कविता ।रच जाते हैं शब्द ।आप भी तो मानते हैं...........
नींद के आगोश में आने से कुछ पहले
कौंध जाता है उसका चेहरा
और बस सीमित शब्दों में
रच जाती है कविता.....
कभी अंदर कुछ गिने चुने शब्द
खेल रहे होते हैं हाइड एंड सीक
और एकदम से कोई खास शब्द
बोल उठता है...धप्पा !
बस उतर जाती है मन में कविता.....
हाँ बस ऐसी ही तो होती है कविता ।कुछ बातें जो एक दोस्त होने के नाते कहना चाहूंगी ,आप इसे अन्यथा नहीं लेना ।मैं कोई आलोचना नहीं कर रही ।वैसे भी आलोचना मेरी फितरत में नहीं ,क्योंकि मुझे लगता है कि बेहतरी की गुंजाईश हर किसी में होती है । हममें और आपमें भी ।कोई भी पूर्ण नहीं होता ।पूर्णता का एहसास क्रियाशीलता और विकास को बाधित करता है ।यह आपकी पहली किताब है और हर लिहाज़ से बेहतरीन है ।लेकिन आपने पिछले कुछ वर्षों में इन कविताओं से भी बेहतर रचा है ।ज्यादा परिपक्व और गम्भीर लेखन किया है आपने ।आपको एक एक क़दम आगे बढ़ते देख रही हूँ मैं और यकीन जाने ये मेरे लिये सुखद एहसास है ।तो मैं यही चाहूंगी कि आप लगातार रचनाशील बने रहें ,सृजन करते रहें ,गढ़ते रहें सपनों को और बनाते रहें उनके लिये आसमान ।आपकी ऐसी बेवजह की कविताएँ कई कई वजहों वाली कविताओं से ज्यादा समृद्ध और सार्थक हैं ।
एक दोस्त को उसकी दोस्त की तरह से ढेरों शुभकामनाएँ 😊 

Saturday, July 1, 2017

कुछ प्रेम कुछ जिंदगी



एक बड़े सरकारी अस्पताल का किडनी ट्रांसप्लांट यूनिट, दो अलग शहर से भिन्न सम्प्रदाय का लड़का-लड़की, जवानी के खुशियों भरे दिन व सपने देखने के बजाय दर्द से बेहाल, थे भर्ती किडनी के ट्रांसप्लांट के लिए!
अलग-अलग बेड पर लेटे कराहते हुए एक दूसरे को छिपी नजरों से निहार कर दर्द कम करने की कोशिश कर रहे थे ! इस दर्द के सीजन में भी इस अजीब से साथ की वजह से कभी कभी मुस्कान तैर जाती दोनों के होंठो पर ! 
लम्बे ऑपरेशन अंतराल के बाद दोनों के अन्दर एक दम से जीने की जिजीविषा जग चुकी थी ! दोनों होश में आते ही दूसरे की खबर ले रहे थे ! लड़के ने आखिर पूछ ही लिया - कैसी हो, बड़ी चमक रही हो! फिर पहली बार मिलने पर दर्द को दबाये मुस्कुराते हुए लड़की बोली - फिट हूँ मूरख, तुम भी चमको !!
समय बीता, साथ साथ ही डिस्चार्ज हुए अस्पताल से , जीने के लिए पासपोर्ट हासिल कर लिया था दोनों ने उपरवाले से पर उसपर लगा वीसा इस शर्त पर मिला कि आगे की जिंदगी साथ गुजारेंगे !
फिर किसी मॉनसूनी दिन में लड़का देर से आई लड़की पर प्रेमसिक्त नजरों के साथ बरसते हुए कहता है - बाद्लें आती हैं, पर बारिश नहीं .....
जैसे उल्लू तुमने फोन कर के कहा, बस पहुँच रही हूँ, और फिर ...............सॉरी !! ऐसा जाम लगा कि पूछो मत, कल पक्का पक्का 
हुंह, इससे बेहतर तो अस्पताल का बिस्तर था, कराहते हुए निहारने का सुख तो मिलता था 
इंसान अपने लिए जी ले या अपनों के लिए....
अपनों के लिए जीने से जो खुशी मिलती है, वो अतुलनीय है
पर अगर अपने लिए जीने में ही, अपनों का जीना निहित हो जाए तो ??
काश “मैं” हर समय “हम” जैसा लगने लगे.............!!!
ऐसी प्यारी सी सोच दोनों में समा चुकी थी 
समय के साथ परिवार वाले विलेन भी बने ! पर कुछ लघु प्रेमकथा का अंत सुखद और वाजिब होता है ! ईद और दिवाली एक साथ मनाने का सुख कोई इनसे सीखे 😊
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रविश, मोहित और गजाला की मुस्कुराहटों को महसूसते हुए शाबाशी के साथ इंटरव्यू ले रहे थे !
हिंदी ब्लोगर्स डे की शुभकामनायें  💐

Friday, June 23, 2017

तोंद वाले बाबू का व्यायाम


हम तोंद वाले सामान्य सरकारी बाबू भी बेहद अजीब किस्म के संतुष्ट प्राणी होते हैं🙂
हम जमीन पे पड़े पेन या पेपर को उठाते हुए भी ऐसे दर्शाते हैं जैसे आज के 50 दंड बैठक जो करने थे, में से दो पूरे हो गए ।😂
किसी दिन बहुत कहने सुनने के बाद मोर्निंग वाक के लिए हाफ पैंट टीशर्ट स्पोर्ट्स शूज पहन कर तैयार होते ही ऐसा हमे लगता है जैसे दो किमी का ब्रिस्क वाक पूरा हो चुका, फिर पूरे घर का पोछा लगा चुकी पत्नी से ग्लूकोज वाटर की मांग करते हुए समझाते हैं कि कल पार्क का दो के बदले चार चक्कर पक्का।😍
वैसे कार से दूध/सब्जी/राशन लाना भी वॉक में ही कंसीडर होना चाहिए, ऐसा पत्नी को समझाते वक्त इस तरह की फीलिंग आती है जैसे सरकार को आठवीं पे कमीशन लागू करने के लिए गुहार लगा रहे हों 😘
बेशक कमर की वास्तविक साइज़ 44 हो पर हम पूरे दिन सांस भींचे और नाभि से तीन इंच नीचे तक पेंट का बकल लगाकर और बेल्ट खींच कर उसको 36 किये रहते हैं, और तो और शर्ट के दो लगातार बटन से मोटापे के वजह से मर्दाने नाभि का दिखना हम स्टेटस सिंबल समझते हैं। खाते पीते घर से बिलोंग करते हैं भाई, इतना फिटनेस तो जरुरी है न 😅
बाबा रामदेव के 70 प्रतिशत भक्त हम जैसे होते हैं जो उनके शिविर में तीन मिनट कपालभाति करके पूरे दस हजार भक्तों के बीच बताता है कि उसका 80 ग्राम भार बस इस तीन मिनट में कम हुआ और फिर सेवादार से 200 ग्राम अंगूर की मांग करते है। बेचारे बाबा भी कनखी मटकाते हुए पंतजलि का आंवला जूस दो चम्मच सुबह शाम लेने की सलाह देते हैं 😇
हम बाबू सच्चे रूप से सिद्धान्तः हेल्थ कॉन्सस होते हैं, लोगों के सामने बॉईल वेजिटेबल की बात करते हैं और घर लौटते समय बजट का ध्यान रखते हुए 400 ग्राम चिकन लेग पीस के साथ पहुंचते हैं और फरमाइश होती है कि घी में भुना जाए, कश्मीरी मिर्च डाल कर, थोड़ी दही जरुरी है, ताकि पाचन शक्ति बनी रहे🤣
आजकल ये सेल्फी वाले चक्कर ने भी समझा दिया है कि कैसे मोबाइल रखनी है, कैसे सांस अंदर कर सीना चौड़ा करना है, टीशर्ट के बाहों को समेटे हुए कैसे बाइसेप्स दिखाना है और फिर अपडेट करते समय पिक्चर कैसे क्रॉप करना है। बेहद भोले और दिलवाले हैं हम सामान्य से सरकारी बाबू 🤗
और हां, इसलिए रिटायर्ड होते ही बेहद जल्दी दिखाते हैं ऊपर पहुंचने में भी, ये एक बेहद सच्ची वाली कन्फेशन है 😎

जो भी कहेंगे दिल से कहेंगे, क्योंकि वही तो तेज धड़कता है, यही वजह है हमें सीजीएचएस के माध्यम से सरकारी खर्चे पर एंजियोप्लास्टी करवाने की भी जल्दी रहती है ना 😍😊




🙂

Wednesday, June 21, 2017

~अबेफेटोहमारमूत~


बेवकूफी से भरे इस शीर्षक को देख कर या तो आप मुस्कुराते हुए स्टेटस स्किप करेंगे या फिर गुस्से में कहेंगे, मुकेश पगलाया क्या 
पर बात कुछ उन दिनों की है, जब नौकरी पाने के कोशिश तो थी ही साथ ही हॉबी के रूप में क्वीज का नशा कुछ दोस्तों ने चढ़ा दिया था | तब मेरे मित्र मेरे हमनाम मुकेश ने कुछ हथकंडे अपनाए, ऐसे बहुत से नए-नए सूत्र इजाद किये ताकि बहुत से ऑब्जेक्टिव प्रश्नों का जबाब दिया जा सके ! अब जैसे अबेफेटोहमारमूत में अकबर के दरबार में रहने वाले नवरत्नों का नाम छिपा था  अबुल फजल, बीरबल, फैजी, टोडरमल, हकिम हुमाम, मान सिंह, रहीम, मुल्ला दो प्याजा, तानसेन ! ऐसा ही एक था जिसमे सभी विटमिन के साइंटिफिक नेम छिपे होते थे, यथा "AरेB1था2रा3नी5पे6पा12साCएDकेEटोKमेंHबा" | इस तरह के कई अजीब अजीब से हमने सूत्रों को रटा, बेवकूफों के तरह ! गणित में भी ऐसे ही ढेरों रीजनिंग लगाते रहे, आज वो सब कहाँ रह गया, पता नहीं, पर उन दिनों की स्मृतियाँ यादगार हैं |
अपने उस समय के बौद्धिक ग्रुप में फिर भी शायद सबसे कमजोर कड़ी मैं ही था, पढ़ाई में कम खिलंदड़ापन ज्यादा था मेरे में, बेशक किसी भी खास विषय पर पकड़ नहीं होता था, पर कभी कभी कोई बहुत ही कठिन प्रश्न का जबाब भक से मेरे मुंह पर आ जाता, विसुअल्स पर पकड़ थी . और साथ ही दोस्ती जिंदाबाद का नारा लगाते हुए उस समय भी सभी ब्रिलियंट दोस्तों का पेयर कभी न कभी बन कर, कुछ यादगार क्विज फाइनल्स तक की यात्रा की (क्विज में प्रतिभागी पेयर यानी जोड़े में होते हैं), जिसमे एक बार आल बिहार क्विज के फाइनल तक पहुंचना जहाँ यशवंत सिन्हा ने पुरस्कृत किया था! तो एक बार सभी शानदार क्विज के पेयर के बन जाने के बाद मैं और मेरे से थोडा बेहतर मेरा एक और मित्र संजय मालवीय ने मिल कर राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल किया था, वो खास चांदी का यादगार टुकड़ा आज भी अपने गोल्डन दिनों के रूप में सहेज रखा है मैंने ! वो छोटी सी पेपर कटिंग लेमिनेट करवा कर रख ली थी  । बहुत से अन्य क्विजों में मैं और मेरा मित्र मुकेश पार्टनर बनते और मुकेश स्क्वायर कहलाते 
प्रो.एम सी घोष सर के वरदहस्त से एक सोसायटी चलती थी - यूथ वेलफेयर सोसायटी, जहाँ हर शनिवार या रविवार को हम मिलते और फिर क्विज का दौर चलना पक्का रहता  उन वीकली क्विज में जीते हुए पेन भी वर्ल्ड कप जैसी फीलिंग्स देते थे। बाद में मैंने स्वयं आगे बढ़कर 'दस्तक' के नाम से एक सोसायटी बनाई, अपने छोटे से शहर के नए नए बच्चों में जीके का जीन भरने की अजीब सी कोशिश की | आज मेरा मित्र मुकेश बरनवाल इसी 'दस्तक' के नाम से इलाहाबाद में एक बहुत बड़े सिविल सर्विसेज और बैंकिंग/एसएससी इंस्टिट्यूट का निदेशक है ।
जिंदगी मेरी जैसी भी रही, हर उन दिनों को याद कर लिख सकता हूँ, जरूरी थोड़ी है कि सेलेब्रिटी बनने के बाद ही संस्मरण लिखा जाय 😊
~मुकेश~