कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Friday, August 28, 2015

शब्द जो सहेजा हुआ है

ऑरकुट के जमाने में याद होगा testimonials हुआ करता था प्रोफाइल खोलते ही नीचे लगातार दिखते चले जाते  थे, ऐसे लगता था जैसे प्रोफाइल के लिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट हो!!
जब ऑरकुट दुनिया से विदा लेने लगा तो इन testimonials का स्नेप शॉट लेकर मैंने एक एल्बम बना लिया, इस लिंक पर  सहेजा हुआ  है !!

एल्बम ऑरकुट testimonials का

2011 में रश्मि प्रभा दी ने ऐसे ही एक ब्लॉग बना  कर उस पर बहुत से  ब्लोगर्स के  लिए शब्द  दिए, तो obvious था, मेरे लिए भी लिखती, पर खास  ये था, की उस  पर 50 लोगो के कमेंट्स थे, और हर कमेन्ट से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ, ......कल बहुत दिनों बाद, घूमते हुए  वहां  पहुंचा तो सहेजने की इच्छा हो  गयी, और हाँ तुकबंदी से ज्यादा मेरे पास कुछ नहीं होते थे तब भी, अब  भी वही हाल है  ! रश्मि दी के शब्द:

जब मैंने इन्टरनेट का प्रयोग करना शुरू किया और ऑरकुट प्रोफाइल बन गया तो मेरे बच्चों के बाद मेरा पहला ऑरकुट दोस्त बना ' मुकेश ' . इन्टरनेट तो मुझे यूँ भी जादूनगरी लगी और नगरी में मुकेश ने बड़े प्यार से मुझे दीदी कहा . इतना मज़ा आया कि पूछिए मत .... उसकी कम्युनिटी थी ' JOKES, SHAYERIES & SONGS![JSS]' और मेरी 'मन का रथ' .... शुरुआत में वह मेरे हर लिखे पर कहता - ' कुछ नहीं समझे , कितनी बड़ी बड़ी बातें करती हो ...' पर एक बार उसने कहा -'दीदी मेरा मन कहता है तुम बहुत आगे जाओगी...' ..... जब भी मुझे कोई पड़ाव मिला मुकेश की यह बात मुझे याद आई . एक बार हमारी लड़ाई भी हुई , न उसने मनाया न मैंने - लेकिन रिश्ते की अहमियत थी , हम फिर बिना किसी मुद्दे को उठाये उतनी ही सरलता से बातें करने लगे !
फिर वह दिन आया जब मुकेश ने कुछ लिखा .... हर पहला कदम अपने आप में डगमगाता है , उसे भी खुद पर भरोसा नहीं था . पर मैंने कहा , लिखते तो जाओ ... और आज मुकेश की सोच ने शब्दों से मित्रता कर ली है और शब्दों ने उसे एक सफल ब्लॉगर बना दिया . अब ब्लॉग की दुनिया में उसकी अपनी एक पहचान है .
चुलबुला तो वह आज भी है , पर उस चुलबुलेपन के अन्दर एक शांत, गंभीर व्यक्ति है , जो हँसते हुए भी ज़िन्दगी को गंभीरता से समझता है .
कई बार हम ज़िन्दगी की ठोकरों से आहत कुछ लोगों से कतराते हैं, खुद पे झुंझलाते हैं - फिर अचानक हम बड़े हो जाते हैं और खुद से बातें करते हुए सुकून पाने लगते हैं कि यदि ज़िन्दगी यूँ तुड़ीमुड़ी न होती, अभाव के बादल घुमड़कर न बरसे होते तो जो खिली धूप आज है, वह ना होती !
मुकेश से मेरी मुलाकात 'अनमोल संचयन' के विमोचन में प्रगति मैदान में हुई , बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता ...पूरे व्यक्तित्व में कुछ ख़ास था , जिसे शब्दों में नहीं बता सकती , ..... हाँ मुकेश का परिचय - संभव है , आपसे बहुत कुछ कह जाए -

४ सितम्बर १९७१, आनंद चतुर्दशी के दिन मेरा जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में बिहार के बेगुसराय जिला में हुआ था...! वैसे तो राष्ट्रकवि "दिनकर" का जन्म स्थान भी इसी जिले में है....:)...गरीब परिवार और छः भाई बहन में सबसे बड़ा होना...शायद मेरे जीवन में मेरे लिए एक अवरोधक की तरह था..उस पर ये भी पता नहीं था की पढाई क्यूं कर रहे हैं...! विज्ञान(गणित) में स्नातक(प्रतिष्ठा) प्रथम स्थान से उतीर्ण हुआ...क्योंकि घर वालो का मानना था की विज्ञान की पढाई ही सर्वश्रेष्ट है..!काश कुछ और विषय लिया होता..! बाद में ग्रामीण विकास में स्नातकोतर डिप्लोमा भी किया...! चूँकि नौकरी जरुरी थी...तो एक आम छात्र की तरह सामान्य ज्ञान को hobby की तरह अपना लिया..! इस कारण quiz में बहुत सारे पुरूस्कार मिले, all bihar quiz championship में एक बार runner - up भी रहा..! भाग्य का जायदा साथ न दे पाना और शुरू से आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के कोशिश के कारण भी जायदा कुछ अर्जित नहीं कर पाया...वो तो भगवन का शुक्र है की उम्र बीतने से पहले ही सरकारी नौकरी मिल गयी! सम्प्रति अभी कृषि राज्य मंत्री के साथ जुड़ा हुआ हूँ! मेरी जिंदगी मेरी पत्नी अंजू और दो बेटे यश और ऋषभ हैं...! रश्मि दी के द्वारा संकलित "अनमोल संचयन" में मेरी एक कविता प्रकाशित हो चुकी है....! बहुत बेहतर तो नहीं लिख पता हूँ..पर रश्मि दी के motivation से आज से तीन साल पहले ब्लॉग बनाया था.."जिंदगी की राहें" के नाम से...

मैं हूँ मुकेश कुमार सिन्हा ..
सरकारी नौकर ही नहीं ..कवि भी हूँ सरकार
विवाहित हूँ..और हूँ दो बच्चों का बाप..
खुशियाँ उनकी
बस इतनी सी है दरकार
सीधा सरल सहज..
साधारण सा हूँ इंसान..
सादगी है मेरी पहचान ....
नैतिक कर्त्तव्य ..
सामाजिक दायित्व..
इन सबका मुझे है भान
भावों की रंगोली सजाना
खुशियों के बीज बोना
.आनंद के वृक्ष उगाना
जीवन का है ये अरमान
बस इतना सा ही है मेरा काम.

मुकेश का ब्लॉग - जिंदगी की राहें

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ये शब्द इस  ब्लॉग से लिए गए हैं
शख्स मेरे कलम से 
(कल राखी है, तो याद आ गयी दीदी की बातें, वैसे इस पोस्ट पर और भी बहुत  सी दी सदृश मित्रों ने अपनी बातें  रखी है)


Friday, August 21, 2015

लघु प्रेम कथा - 8

#लघुप्रेमकथा - 8
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पहला दिन - पहला शो
"नदिया के पार" देखने गया था लड़का, कॉलेज बंक कर के, अकेले !
उफ़! भीड़ पर्दा फाड़ रही थी, सिनेमा हाल अटा पड़ा था !
टिकट मिलने का चांस जीरो बटा सन्नाटा!!
लौट ही रहा था कि लेडिज की कतार पर नजर पड़ी !!
चल एक आखिरी कोशिश!!
भीड़ भरे कतार में बचते बचाते धीरे से छह रूपये बढ़ाते हुए अपनी आवाज में सेक्रिन घोलते हुए मीठे स्वर में बोला - प्लीज! एक टिकट मेरी भी !! प्लीज !!
क्यूँ! आप मेरे मुंह बोले भाई हो क्या!! हुंह! मुंह उठाये आ गये !
अरे नही !! इंटरवल में मूंगफली लाऊंगा न! ( हलकी मस्ती, मुस्कराहट के साथ)
लड़की को भी मुस्कुराना ही पड़ा !!

हाल में दोनों साथ में इंटरवल में मूंगफली खा रहे थे :-)
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फिल्म में गूंजा और चन्दन की शादी अंततः हो जाती है:-)

रियलिटी में भी दो दिल कुछ पलों के लिए धडकते हैं :-) :P


Monday, August 17, 2015

जुगाड़

बात उन दिनों की है, जब फाके की जिंदगी चल रही थी. पार्ट 1 में देवघर कॉलेज में पढ़ रहे थे शायद | उन दिनों बिहार (तब झारखण्ड का नही बना था) में प्राइवेट नौकरी का कोई ज्यादा स्कोप नही था। कॉलेज के साथ सहारा इंडिया के कमीशन एजेंट का भी कार्य करते थे, साथ में ढेरों ट्यूशन तो थे ही पर फिर भी पैसे इतने कम होते की कोई फ्यूचर ही नही दिखता था । हाँ सरकारी नौकरी की वेकेंसी भी बहुत कम निकला करती थी । 50-60 सीट का बैंक क्लर्कस ग्रेड आता था !!

हाँ तो एक दिन कहीं न्यूज़ पेपर में नेशनल स्कूल ऑफ़ बैंकिंग मुम्बई का एड दिखा ! सिर्फ 400/- में पोस्टल कोचिंग दे रही थी, यानी वो दो महीने तक लगातार स्टडी मटेरियल भेजते !! पर 400 का जोगाड़ प्रॉब्लम था ! एवैं एक दिन अपने एक मित्र से कह रहे थे कि इसको करना अच्छा रहता ! बस वो कह बैठा एक काम कर मैं 100/- देता हूँ तू बस मेटेरियल का फ़ोटो स्टेट करने देना!! 

मेरी तो बांछे खिल गयी ! तिकड़म की गोटी फिट हो गयी ! अब मैंने अलग-अलग चार लोगो से बात की सबसे 100-100 लिए, मेटेरियल आ गया !! हर को समय से फ़ोटो स्टेट करने भी दे दिया !!

तो ऐसे थे भैया !! 
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हाँ फिर अंतिम में एक और दोस्त 50/- में पूरा मेटेरियल का फोटो कॉपी लेने को राजी हो गया!

उस दिन उस पैसे से पांचो ने एक साथ मूवी देखी शंकर टॉकीज में, चिनिया बादाम के साथ!

अंतिम में पेट के गुड़ गुड़ को शांत करने के लिए सबको बता दिए क़ी क्या गुल खिलाये थे मैंने !

हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा :-D!



Monday, August 3, 2015

अमिय प्रसून मालिक के शब्दों में "हमिंग बर्ड"


आज ही, 'फेसबुक' पर बहुतेरों के चहेते मुकेश कुमार सिन्हा जी की 'हम्मिंग बर्ड' मिली. पुस्तक का कलेवर ही मुग्ध करनेवाला है; और 'हिन्द-युग्म' ने यहाँ भी अपनी साफ़गोई दर्ज़ की है. अभी फिर हम किताब के भीतर भी चले चलेंगे.
मनोजगत को सूक्ष्मता से विश्लेषित करती कई पूर्ण रचनाओं का समृद्ध और सशक्त संसार है यह पुस्तक.

एक आम आदमी शब्दों को निचोड़कर जब मानवीय मूल्यों का चित्रण शब्दों से ही करना चाहता है, मेरी समझ में तभी 'हमिंग बर्ड' जैसी क़िताब का आगमन तय होता है. मुकेश जी ने प्रायः रचनाओं के साथ न्याय करना चाहा है, जिससे यह एक पठनीय सामग्री बन गयी है.

सच तो यह है कि कुछ कविताओं का आस्वादन करते- करते ऐसा जान पड़ता है कि हम उस परिदृश्य का हिस्सा बन गए हैं जहाँ यह शब्द- चित्रण चल रहा है, और यही इन कविताओं की निर्विवाद सार्थकता है.

एक बानगी 'महीने की पहली तारीख़' में है, जिससे शायद ही कोई मध्यवर्ग अछूता हो...
''हर महीने
का हर पहला दिन
दिखता है एक साथ
रहती है उम्मीद
बदलेगा दिन
बदलेगा समय
दोपहर की धूप हो जाएगी नरम
ठंडी गुनगुनाती हो पाएगी शाम...''
ठीक ऐसे ही, जब आगे 'उदगार' का पाठ होता है, रिश्तों में अपनी धाक जमाने वाले एहसासों का ताना- बाना दिखता है कि जो सात फेरों में जज़्ब वायदे हैं, कहाँ उनके आगे कोई उछृंखल भाव अपनी पैठ कभी स्थायित्व के साथ कर पाता है...
''याद नहीं फेरों के समय लिए गए वायदे
पर फिर भी हूँ मैं उसका...''

मुकेश जी की कविताएँ आम आदमी की ज़िन्दगी से ज़्यादा बातें करती हैं, और उन्हीं वार्तालापों में अपनी सटीक और सार्थक उपस्थिति बिना किसी अवरोध के जड़ती चलती है. आपकी कविताओं का जो सबसे सफल पहलू मैं समझता हूँ, वो एक मध्यम- वर्ग का शोषित और स्वयं से भरसक ज़्यादा दोहन किए हुए एहसासों का खाका है, जो बड़े ही चालू शब्दों से सजाया गया है.
इसी कड़ी में एक कविता आती है, ''पगडण्डी'' जो गोया सच से स्वयं का साक्षात्कार- सा है, जिससे शायद ही कोई मनुज अपने जीवनकाल में कभी बचा हो. बानगी तो देखिए---
''कोई नहीं
नहीं हो तुम मेरे साथ
फिर भी
चलता जा रहा हूँ
पगडंडियों पर
अंतहीन यात्रा पर
कभी तुम्हारा मौन
तो, तुम्हारे साथ का कोलाहल
जिसमें होता था
सुर व संगीत
कर पाता हूँ, अभी भी अनुभव
चलते हुए, बढ़ते हुए
तभी तो बढ़ना ही पड़ेगा...''

इन सबके अलावा, कुछ कविताओं के अंत और वो काव्य स्वयं बहुत ही निराश भी करते हैं. अगर आप संवेदना को दिनचर्या में घोलकर जियें तो यह एक अच्छी कोशिश है, मगर एहसासों के पतवार में रबड़ के टायर की मौजूदगी सालती है. मुकेश जी को कुछ कविताओं का अंत प्रभावशाली बनाना चाहिए, जहाँ वो चूक गए हैं. साथ ही, कुछ को किसी और संग्रह में तरजीह दी जानी चाहिए, ताकि आपकी बातों की गहराई चलायमान रहे; और यहाँ फिसल जाने से वो तारतम्य भी टूटा ही है. उम्मीद है, इस पर वे आगे ज़रूर ध्यान रखेंगे, और संख्या से ज़्यादा गुणवत्ता को तवज़्ज़ो देंगे...पर तब तक के लिए इस क़िताब की ख़रीद अच्छे खयालातों को बढ़ावा देना है.

प्रसंगवश:- मार्केटिंग के ज़माने में मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक में इस बाज़ारू रवैय्ये को सफलतम रूप से भुनाया है, और जब पुस्तक की कीमत पर ही उसके रचनाकार की सुन्दर हस्तलिपि में 'हस्ताक्षर' जिसे दुनिया 'ऑटोग्राफ' कहती है, मिल जाए तो सुन्दर पृष्ठ सज्जा वाली इस किताब को लेने का सौदा बुरा नहीं है.

क़िताब से जुडी सभी शख़्सियत को शुभकामनाएँ!


आलोचना ब्लॉग पर भी इस समीक्षा को पढ़ सकते हैं

नीता पौडवाल के कमरे से, उनके द्वारा भेजी हुई