कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Tuesday, March 7, 2023

जटिल वैज्ञानिक शब्दावली की सहज सरल काव्यमय प्रस्तुति है, ...है न! - इन्दु सिंह

 



पुस्तक मेले के दौरान ही सुश्री इंदु सिंह ने न्यूज़ क्लिपिंग्स भेजी थी, आज शेयर कर रहा हूँ

😊
जब कोई मित्र आपके संग्रह पर इस तरह विस्तृत समीक्षा करके, प्रकाशित भी करवाये, तो खुशी की इस वजह को सहेजना बनता है न 😊
जटिल वैज्ञानिक शब्दावली की सहज सरल काव्यमय प्रस्तुति है, ...है न!
मुकेश कुमार सिन्हा ने अपनी अलग तरह की अभिव्यक्ति और रचनाओं से साहित्य जगत में अपने लिए एक ऐसी पहचान बनाई जिसकी वजह से आज बड़े-बड़े साहित्यकार भी उनके नाम से परिचित हैं । उनकी कविताएं साधारण होकर भी अपने भीतर असाधारण अर्थ छिपाए रहती व वैज्ञानिक शब्दावली के प्रयोग के बावजूद भी सहज ही लगती हैं । उन्होंने अपने विज्ञान विषय का जानकार होने का सदुपयोग अपने लेखन में कर उसे विशिष्टता प्रदान कर दी है । जिसने उन्हें भी आम से खास बना दिया कि जहां विज्ञान शब्द सुनकर माथे पर बल पड़ जाते वहीं उनकी रचनाओं में जब वैज्ञानिकों बिम्बों को पढ़ते तो काव्य चित्र ही साकार नहीं जो जाते बल्कि, विज्ञान के कठिन सूत्र व नियमावली भी आसानी से समझ में आ जाती क्योंकि, वह उनके जरिये मनोभाव को साकार कर देते हैं । उनके नये काव्य संग्रह है न में भी जिन कविताओं का समावेश उनमें विविधता के साथ ही उन विषयों को भी शामिल किया गया जिनकी वजह से उनको पाठक जानते हैं । वह प्रेम व संववदनाओं के वह चितेरे जो अंतर में होने वाली हलचल को पन्नों पर शब्दों में उकेरने में माहिर तो उसे पढ़ते-पढ़ते अनायास ही हम उस माहौल में स्वयं को पाते जिसका चित्रण वह अपनी कविता में कर रहे होते हैं । इस तरह कह सकते कि तो वह अपने सृजन से कल्पना को हकीकत बना देने का कौशल रखते हैं । काव्य संग्रह की पहली कविता प्रेम का अपवर्तनांक में जब वह लिखते विज्ञान का दिल धड़कता ही नहीं धधकता भी है और प्रेम अपने चरम पर पहुंचने से पहले असफल हो जाये तो प्रेमी मन की निराशा चंद्रयान की लैंडिंग की तरह अंतिम पलों में लड़खड़ाने के अहसास से अपने दर्द को जोड़कर पढ़ने वालों को अपने दुख से जोड़ लेती है । इसके बाद दो कप चाय के बहाने वह अपने अंदर की उथल-पुथल को दर्शाने में कामयाब रहे व प्रेम भी तो युद्ध ही है न के जरिये उन्होंने प्रेम की तुलना युद्ध से करते हुए अपने जज्बातों को जिस तरह से व्यक्त किया वह काबिले तारीफ है कि प्रेम व जंग में सब जायज होने के बावजूद भी मर्यादा व नियमों का पालन भी जरूरी और पराजय के बाद भी उम्मीद की डोर को थामे रहना कि कभी-कभी कुछ जीतने के लिए कुछ हारना भी पड़ता है और हारकर जीतने वाले प्रेम सिकन्दर को अपना मनोवांछित परिणाम हासिल होता है ।
अगली कविता सुनो न में वह ग्रह-नक्षत्रों व खगोलीय पिंडों को माध्यम बनाकर अपनी प्रेयसी को सम्बोधित करते हुए मन की बात करते है तो अजीब लड़की कविता में वह प्रेमिका की आदतों व स्वभाव को जो प्रेमी को आकर्षित करती का बयान करते हुए कह देते कि कितनी भी अजीब हो पर सबकी अपनी प्रेयसी बेहद अलहदा होती जिसके लिए तमाम ऊपमायें कम पड़ जाती हैं ।स्टिल आई लव हर कविता में जीवन से प्रस्थान कर गई प्रेमिका का स्मरण करते हुए लिखते है, प्रेम तो पतंगों का ही होता है अमर / आखिर, जलन से होती मृत्यु / फिर भी यादों में जलना और / दीपक की लौ में आहुति देना है प्रेम अपनी प्रेमिका को न भूल पाने की कसक शब्दों में बड़ी तीव्रता से उभरी है । आगे खुशियों भरा सितंबर, परिधि, देह की यात्रा और प्रेम की भूलभुलैया कविताओं में भी कवि मन का दर्द व अनुराग शब्द बनकर बाहर निकला और पढ़ने वालों के अन्तस् को छू गया । सितम्बर का महीना ग्रीष्म व शीत का संगम जिसमें प्यार की कलियां खिलना शुरू हो जाती पर रविवार के बाद आने वाला सोमवार जिस तरह अलसाये मन को बोझिल बना देता उसी तरह यह मिलन को आतुर प्रेमियों को भी उदास कर देता है । एक निश्चित परिधि में में ही पनपता प्रेम जो स्वप्न में देह की यात्रा करता व प्रेम कविता रचता क्योंकि, कवि स्वयं कहता है - हाँ फिर सब कह रहा हूँ / मुझे प्रेम कविता लिखते रहना है / हर नए दिन में नए-नए / झंकार एवं टंकार के साथ / समझी न इसलिए कवि मन देह की यात्रा के बाद प्रेम की भूलभुलैया में भ्रमण करता हुआ हृदय की कंदराओं से नयनों की गलियों और गालों के डिम्पल में गिरता-पड़ता जुल्फों में अटक जाता प्रेमिका की मुस्कुराहट का सौदाई बन जाता है ।
अब तक तरह-तरह की संज्ञाओं से प्रेमी-प्रेमिका को नवाजा गया लेकिन, चश्मे की डंडियों में कोई उन्हें देख सकता तो वह मुकेश कुमार सिन्हा ही है जो लिखते हैं कि, तुम और मैं / चश्मे की दो डंडियाँ / निश्चित दूरी पर / खड़े-थोड़े आगे से झुके भी और ये भी तो सच / एक ही ज़िंदगी जैसी नाक पर / दोनों टिके हैं / बैलेंस बनाकर से वह दूरियों को नजदीकी में परिणित कर देते हैं । प्रेम कविता में प्रेम की भिन्न-भिन्न तरह से व्याख्या करते हुए उसे कभी तस्वीर तो कभी घड़ी की सुइयां तो कैलेंडर तो कभी विंड चाइम तो कभी ऑफिस फ़ाइल की वेल्क्रो स्ट्रिप तो कभी फोन के रिसीवर तो कभी लिफ्ट का दरवाजा बताते हुए अपने अनूठे अंदाज में परिभाषित करते हैं । मित्र कविता में वह अपने मीत को संबोधित करते हुए कहते हैं - सुनो, ज़िंदगी लाती है परिवर्तन / बदल जाना, बदल लेना सब कुछ / पर, मत बदलना / नजरिया और एहसास / अरे, वही तो हैं खास तो नहीं लगता इस गुजारिश को कोई मित्र अनसुना कर सकता है । अगले पन्ने पर वह बोसा कविता में वह लाल फ्रॉक वाली लड़की को याद कर रहे तो पिघलता कोलेस्ट्रॉल कविता में प्रौढ़ प्रेम को दर्शाते हुए होने वाले अनुभवों का शब्द चित्रण जैसे दो किशोर हाथ पकड़कर उम्र की चढ़ाई चढ़ें और थककर पीछे पलटकर देखें कि यात्रा लम्बी भले ही रही पर हमराही ने रास्ते के उतार-चढ़ाव को मायने दे दिये तो वजह बदलने पर भी प्रेम कायम है । एहसासों का आवेग एक ऐसी कविता जिसमें कवि मन किस तरह अपनी उलझन व भावनाओं को शब्दों में पिरोकर काव्य माला गूंथता का दर्शन दर्शाया गया है । असहमति कविता में सुंदर तरीके से कवि ने उसके पर्याय को अभिव्यक्त किया कि - असहमतियाँ / नहीं होती हर समय / सहमति का विपरीत / असहमति भी प्रेम है केवल उसे समझने का दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता तब न कहे जाने पर बुरा न महसूस होगा कि उसके पीछे छिपे भाव को प्रेमी समझ सकेगा जो सदैव मनाही नहीं होता है ।
रुमानियत से भरी डायरी कविता हर उस किशोर के लड़कपन की गाथा जो अपनी डायरी में मन को छूने वाली हर छोटी-छोटी बात को दर्ज करता चाहे गीतों की पंक्तियां हो या अपनी कहानी जो अधूरी रह जाए तो पन्नों को पलटकर फिर दोहराई जा सकती है । बेहद मार्मिक कविता जिसमें अल्हड़ उम्र की अधूरी दास्तान के खालीपन को एक बिटिया की चाहत जिसे प्रेयसी का नाम देकर भरा जा सके के जरिये बयां करना कोमल मन की गहरी चोट को दर्शाता है । ब्यूटी लाइज इन बिहोल्डर्स आईज़ कविता भी कवि की तीक्ष्ण दृष्टि का चित्रण है तो चमकते रहना में अपनी प्रेमिका के लिए दुआ की गई कि कोई मौसम हो या कोई हालात या कितनी भी दूरियां ग़म न करना बस, चमकते रहना और चक्रव्यूह कविता में प्रेयसी के रुदन पर आपत्ति जताई गई कि उसके फफकने से प्रेमी के अंदर भी हूक सी उठती पर, कहीं न कहीं यह एक दिलासा भी देता कि आंसू बेवजह नहीं प्रेम की ही प्रतिक्रिया कि प्रेम यादगार होता है / तभी तो प्रेम / ताजमहल बनाता है । आगामी कविताओं प्रेम का भूगोल, स्किपिंग रोप - प्रेम का घेरा, प्रेम का ग्रैंड ट्रंक रोड, प्रेम यानी उम्मीदें एवं उम्रदराज प्रेम में भी प्रेम के विविध आयामों का काव्यमय चित्रण जहां प्रेम को भौगोलिक परिस्थितियों, रस्सी कूदने की क्रिया, नेशनल हाइवे, अंत तक की उम्मीद व उम्र से जोड़कर देखा गया और फिर जो अनुभव हुआ उसे कवि ने कागज पर लिख दिया कि प्रेम ही केवल प्रेम ही वह शय जिसके सहारे जीवन बिताया जा सकता और हर एक शय में उसे अनुभव कर जीवन को नीरस होने से भी बचाया जा सकता है ।
ऐसे ही रेटिना, झील का किनारा, प्रेम रोग, पाइथोगोरस प्रमेय, टू हॉट टू हैंडल कविताएं भी प्रेम के बहुआयमों को प्रस्तुत करती हैं । रेटिना में कवि कहता है समझ गया / तुम्हारे साथ के लिए / नींद का ओढ़ना-बिछौना होता है जरूरी / और गहरी नींद में होना शायद, प्रेम होता होगा तो झील का किनारा कविता में जल में फेंके गए पत्थर से बनने-बिगड़ने वाले दायरों के माध्यम से प्यार को यूँ व्यक्त किया कि, आखिर, दो मचलते पानी के गोले / सपने सरीखे / टकराए / जैसे हुआ / गणितीय शब्दों में, वेन डायग्राम का सम्मिलन तो विज्ञान की शब्दावली को काव्य में पिरोकर दोनों को सहज करने वाली कविताएं हैं । ऐसे ही प्रेमरोग कविता में गज़ब ही कर दिया जहां प्रेम को एंटीबायोटिक की संज्ञा देकर एक नई परिभाषा गढ़ दी जो निश्चित ही कल्पना के आकाश में एक नूतन बिम्ब है तो पाइथोगोरस प्रमेय कविता में किसी गणितीय सिद्धांत की तरह मानकर प्रेम को सिद्ध करने का काव्यमय प्रयास रोचक व प्रेमिल है कि कवि को सर्वत्र प्रेम ही प्रेम नजर आता है । जिसे वह कविता के द्वारा इस तरह से रचता कि जड़ वस्तु को भी पाठक अलग नजरिये से देखना शुरू कर उसमें प्रेम का पुट खोज सकता इस तरह वह पढ़ने वाले की कल्पनाशक्ति को भी उड़ान देते हैं । टू हॉट टू हैंडल भी अपनी तरह की एक अलग रंग की प्रेम कविता जिसमें कवि गर्मी की गर्म दोपहर में प्रेमिका को याद करते हुए कोल्ड ड्रिंक से मिलने वाले सुखद अहसास को उसकी उपस्थिति से जोड़कर देखता है ।
हर कविता प्रेम का एक नया दृष्टिकोण पेश करती हुई आगे बढ़ती जाती और इसी क्रम में बारिश और प्रेम, प्रेम से झलकती पलकें, पहला प्रेम, प्यार कुछ ऐसा होता है क्या? स्पेसिफिक कोना कविताएं सामने आती हैं । जिनमें मोबाइल के पहले वाले जमाने के प्यार की स्मृति को शब्दों में ढालकर कविता का रूप दिया गया जो बारिश की तरह कभी भी चली आती और अंदर-बाहर दोनों भिंगो देती है पर, प्रेम से झलकती पलकें हर एक क्षण को अपने नयनों के कैमरे में कैद कर लेती जिन्हें आंख बंद कर कभी भी फिर से देखा जा सकता है । हर व्यक्ति को किसी न किसी पर कभी न कभी आकर्षण महसूस होता और ज्यादातर छात्रों तो उनकी खुबसूरत टीचर से मोहित हो जाते बिना ये जाने कि यह सही नहीं बस, शरीर के रसायन में होने वाली हलचल को प्रेम समझने लगते तो ऐसे ही एक किशोर मन को पहला प्रेम कविता में कुशलता से उभारा गया है । प्यार कुछ ऐसा होता है क्या? कविता में कवि मन कभी सायकिल तो कभी प्रेशर कुकर तो कभी एयरोप्लेन और कभी फेसबुक इनबॉक्स से प्रेम की तुलना कर उसकी व्याख्या करता हुआ लिखता प्यार तो ऐसा ही कुछ भी होता है / जो सोचो, जिसको सोचो / सब में प्यार ही प्यार / बस, नजरिये की बात / सोच की बात / सम्प्रेषण की बात / दिल से दिल को जोड़ने की बात मतलब बस, प्यार भरी नजर का होना जरूरी फिर हर जगह वही नजर आएगा तो स्पेसिफिक कोना में भी प्रेम की बयार बह रही और बता रही कि जीवन में सबके एक अनछुआ और विशेष कोना होता जिसमें सबसे बचाकर-छिपाकर प्रेम की कीमती स्मृतियों को सहेजकर रखा जाता है ।
इस किताब में 36 प्रेम कविताओं के अलावा अन्य कविताओं विस्थापन, उम्र के पड़ाव, बेटे यश को चिट्ठी, गुड बाय पापा, पिता व बेटे की उम्मीदें, चाहतें, फ़ितरत, महलों-सा घर, अलविदा, मठाधीश, अमीबा, प्रस्थान, राजपथ, अपाहिज प्रार्थना, आईना, फ्लेमिंगो, उम्मीद, मृत्यु, अर्ध निर्मित घर में भी कवि के लेखन कौशल की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वह अपने कवि को किसी भी हाल में चुप नहीं रहने देते अमीबा पर भी कविता लिख डालते हैं । इसके अलावा इस काव्य संग्रह में कुछ क्षणिकाएं व गणितीय शब्दों पर क्षणिकाएँ भी सम्मिलित जो मुकेश कुमार सिन्हा की विस्तृत लेखनी, विविध विषयों पर पैनी दृष्टि, समग्रता व व्यापक सोच को ज़ाहिर करती कि किस प्रकार अपनी नौकरी, परिवार व बेटों के मध्य उन्होंने संतुलन बनाते हुए अपने शौक को न केवल जीवित रखा बल्कि, सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहते हुए अपना अलग नाम व पहचान बनाई है ।
उनकी इस किताब में वरिष्ठ कलमकारों ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, हृषिकेश सुलभ, प्रभात मिलिंद, अनुराधा सिंह, अनिल अनलहातु, अंजना सिन्हा, स्वाति सिंह, ज्योति खरे व अरुण चन्द्र राय के आशीष वचन व इंडिया टुडे, दैनिक जागरण, लोकमत समाचार, जनवाणी जैसे समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की समीक्षात्मक टिप्पणियों को भी शामिल किया गया तो उम्मीद है कि आप सब भी पढ़कर इसे अपना प्रेम देंगे
... हैं न ।
सुश्री इंदु सिंह
नरसिंहपुर (म.प्र.)



Friday, August 26, 2022

ट्विंकिल तोमर सिंह के शब्दों में यादगार समीक्षा (... है न !)


 मित्र Twinkle Tomar Singh के शब्दों में, यादगार समीक्षा :

... है न !
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मुकेश कुमार सिन्हा जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। आप साहित्य जगत में कई वर्षों से सक्रिय हैं। विद्यार्थी जीवन में विज्ञान के छात्र रहे हैं। प्रकृति प्रेमी हैं, एक सुपल्लवित वाटिका के संरक्षक हैं। गूँज नामक ख्याति-प्राप्त साहित्यिक पेज के कर्ता-धर्ता हैं। दिल्ली में निवास करते हैं, केंद्र सरकार में हैं। अनेकों साहित्य सम्मान इनकी झोली में हैं पर ये ऐसे वैरागी कि शांत मुद्रा धारण किये रहे। जब तक इनकी बायोग्राफी नहीं पढ़ी, इन उपलब्धियों में से मात्र एक विमा से ही परिचित हो सकी थी।
इनकी कविताओं को हमने फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर न पढ़ा हो सम्भव ही नहीं। विज्ञान का छात्र जिसने अधिक साहित्यिक हिन्दी का अध्ययन न किया हो, परंतु हृदय से कवि हो, उसकी कविताएं कैसी होंगी? बस समझ लीजिए किसी अनूठे प्रयोग से कम क्या होंगी?
जब गणित और विज्ञान के नियम कवि-हृदय पर आघात करते हैं, तो प्रतिक्रिया कैसी होगी? बस, 'है न' जैसी होगी!
जी हाँ... 'है न' इनके काव्य संग्रह का नाम है, जिसमें इनकी बेहतरीन काव्य-कुसुमों एक जगह पिरोए हुये, हार के रूप में मिलेंगे। रोती हुई प्रेमिका की दो आँखों से बहते हुये लैक्मे काजल की धार में दो समानांतर रेखाएं देखना गणित में बी० एस० सी० पास शोधार्थी ही कर सकता है।
इनकी 'प्रेम का अपवर्तनांक' 'पाइथागोरस प्रमेय' 'पहला प्रेम' 'प्रेम रोग' 'आईना' 'रेटिना' कविताएं बेहद अच्छी लगीं। इनकी कविताओं की भाषा बेहद सरल है, सुगम है। इनमें आपको मस्तिष्क को बोझिल कर देने वाले क्लिष्ट हिन्दी के शब्द नहीं मिलेंगे। दिमागी कसरत करवाने वाले दुर्गम बिम्ब नहीं मिलेंगे। जैसा वह अनुभव करते हैं, वैसे का वैसा बिना किसी शृंगार के, बिना किसी औपचारिकता के, बिना कोई नाटकीय जामा पहनाए मूल रूप में रख देते हैं, जैसे कि इनकी ही वाटिका में खिलाया गया कोई पुष्प हो- पूर्णतः ऑर्गेनिक!
उदाहरण के लिये-
"जब प्रकाश अपने पथ से विचलित हो सकता है,
तो मैं क्यों नहीं?"
( प्रेम का अपवर्तनांक )
"प्रेम
कैलेंडर पर बने
इतवार के लाल गोले सा
छह दिन इंतज़ार के
जो क्रमशः बना रहता
हर बार लगता है, पास आएगा,
हर बार बीत चुकने के बाद"
( प्रेम )
"निहारने का सुख
निकटता के भाव को नवीनीकृत करने की
एक तर्कसंगत युक्ति भर ही तो है!"
( ब्यूटी लाइज़ इन बिहोल्डर्स आइज़ )
"तुम्हारा स्वयँ का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म"
( चमकते रहना )
"कहीं सपनों ने ले लिया सतरंगी उड़ान तो
नींद में
आँखों के रेटिना पर
ईस्टमैन कलर के परदे पर
ख़ुद से निर्देशित फ़िल्म दिखती चली जायेगी
हाँ याद रखना हीरो रहूँगा मैं
और हीरोइन सिर्फ तुम!"
( रेटिना )
"प्रेम पत्र के
बाएँ ऊपर के कोने पर
लिखा है Rx
खींचे हुये पेन से लिखा था 'प्रेम रोग'
प्रेम एंटीबायोटिक है!"
( प्रेम रोग )
प्रेम का ग्रैंड ट्रंक रोड और पाइथागोरस प्रमेय भी बहुत सुंदर हैं। उनमें से किसी एक पंक्ति को छाँट पाना असंभव था। और पूरी कविता यहाँ लिख पाना मुश्किल। पर वे पढ़ी जानी चाहिए।
इस संग्रह में अंत में क्षणिकाएं भी हैं। एक बेहद प्रभावशाली क्षणिका लिख रहीं हूँ-
"लेवल सिर्फ
ऑक्सीजन का गिरता
तो सँभल जाता, सँभाल लिया जाता
दर्द इस बात का है कि
मानवीयता और संवेदनाओं का
लेवल भी गिर गया है
समय लगेगा, संभलने में"
मुकेश जी की रचनाएं कुछ यूँ है जैसे हर किसी के हृदय से निकला एक राग हो, जैसे जीवन में संतुलन बनाये रखते समय गुनगुनायी जाने वाली धुनें हों, जैसे रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में परखनली से उंडेले जाने वाले गुलाबी द्रव से लिखी गयी प्रेम कविताएं हों.....है न ?
~ टि्वंकल तोमर सिंह


Thursday, February 3, 2022

फ्रेंड - अनफ्रेंड

 बिना किसी वजह के अनफ्रेंड होना, एकदम से अवसाद ग्रसित करता है न।

😊 साथ ही साथ सामान्य रूप से सिर्फ जगह बनाने भर के लिए अनफ्रेंड करना भी अजीब सी अनुभूति देता है, जैसे सच्ची में सबसे छोटी उंगली मिलाकर कह रहे हों, जा तुझसे मित्रता टूटी । ☺️
बेशक शून्य सँवाद रहा हो पर अमित्र करने की पहल करने से बचता हूँ, पर शुरुआती दौर में धड़ाधड़ मित्रसूची का पहाड़ तैयार कर लिया, जिनमें बहुत से मित्रों की ओर से कोई सँवाद नहीं है, और मेरे ओर से भी न तो हर एक के वाल पर पहुंचना सम्भव है और न ही उनके कोई नोटिफिकेशन्स आते हैं। 😊 और तो और, मुझे लगता है दस प्रतिशत से ज्यादा मित्र ऐसे होंगे जिन्होंने वर्षों से फेसबुक चलाया ही नहीं। और हाँ, ये कोरोना काल बहुत से बेहतरीन लोगों को स्वर्गीय भी बना गया, लेकिन उनकी प्रोफ़ाइल सूची में दर्ज है। ऐसे में अब जबकि अधिकतम मित्र सूची की संख्या को छू चुके हैं, और फिर भी करीबन हजार रिक्वेस्ट पेंडिंग हैं, साथ ही कभी न कभी तो लगता हैं किसी को रिक्वेस्ट भेजें, पर करें तो क्या करें। 😊
वैसे तो है मेरा पेज भी, जहां पर लाइक्स यानी फॉलोअर्स भी ठीक ठाक हैं पर दोस्ती तो प्रोफ़ाइल पर ही जँचती है, है न। 😊
ये भी सच है कि बहुत से वरिष्ठ या गरिष्ठ एकतरफा मित्रता मने फैन फॉलोइंग टाइप ही चाहते हैं। 😊 वो खूब एक्टिव रहकर भी कभी न कहेंगे - मुक्कू बढ़िया लिखे हो, उन्हें तो लगता है जैसे एक पाठक सूची जोड़ी है 😊। पर इनमें से भी किसी एक को हटाने पर, उन्हें तुरंत पता चल जाता है, फिर मैसेज जरूर आता है, तंज वाला कि अनफ्रेंड कर दिए?? फिर से उन्हें जोड़ा, लेकिन ज्यादा दर्द तब लगता है कि उसके बावजूद उन्हें कोई पोस्ट/तस्वीर अलाना-फलाना उपस्थिति लायक न दिखी । 😊
खैर, फेसबुक के चोंचले हैं, जो साथ ही रहेंगे, मित्र तो जान हैं, वो सूची में रहें या न रहें 😊
(एनीवे, मोबाइल पर टाइपिंग स्पीड इस तरह भी कुछ न कुछ लिखते हुए देखना चैये 😊 )
.... है न !

( मेरी संग्रह बस आने वाली ही है, उम्मीद रहेगी आपके हाथों तक पहुँचने की )


Friday, February 19, 2021

चाय की चाह



चाय के मीठे घूंट की शुरुआत मैया के पल्लू को दांतों में दबाये, उसके होंठों से लगे स्टील के ग्लास को उम्मीदों के साथ ताकने से हुई। फिर ये रूटीन कब फिक्स हो गया याद नहीं कि मैया के चाय के ग्लास के अंतिम कुछ घूंट पर मुक्कू का नाम रहेगा। शायद कभी एक दो बार मैया से गलती हुई और खाली ग्लास जमीन पर रखने पर उसको लगा, उफ्फ्फ ये क्या हुआ, भूल गयी। फिर हमने भी अपने रोने के सुर का वेवलेंथ इतना तेज किया कि उसके कंपन से पूरा घर सहित मैया भी कांप गयी व उन आंसुओं के धार में बहने लगी चाय की जरूरत| फिर तो एक छोटा सा कप या बचपन वाली छोटे स्टील की ग्लास में मेरे नाम का भी चाय बनने लगा, कभी कभी उस चाय के साथ एम्प्रो या मिल्क बिकीज का बिस्किट भी हुआ करता । वो अलग बात है कि इतने शुरुआती दौर से चाय का शौकीन होने के बाबजूद मन यही कहता कि "चाय ऐसी चाहिये जो दूधगर मिठगर होए" यानी अधिक दूध और होंठ चिपकने लायक मीठी चाय ही गांव में रहने के दिनों में पसन्द हुआ करती थी 😊
कॉलेज के दिनों में , सुबह-सुबह घर में बनी चाय के बदले सड़क तक जाकर अपने दोस्त खुर्शीद के छोटी सी दुकान से उसकी बनाई चाय और बिस्किट का मजा लेना भी अजीब नशा था, मुझे अभी भी लगता है उतनी शानदार चाय और कहीं नहीं पी, लगातार उबलते दूध की वो सौंधी महक नहीं भूलने लायक थी । साथ ही, बेवजह की पॉलिटिकल बहस भी यादगार हुआ करती थी। आजकल बड़ा आदमी हो गया मेरा ये चाय वाला दोस्त 😊
उन्हीं दिनों कॉलेज के सामने की झोपड़ी में मौसी की बनाई उफ्फ्फ वो, सबसे घटिया चाय 😊 जो खूब सारी चीनी, और धुएं के वजह से बनती थी और समोसा भी दिल के बेहद करीब था क्योंकि कोयले के धुँए में उबली चाय जैसा कुछ, को हम क्यों पीते थे पता नहीं, पर उस चाय के सहारे दूर तलक आती-जाती लड़कियों को ताड़ने पर बहस होती, उनका इतिहास-भूगोल क्या रसायन शास्त्र भी जान लेते थे । उनमें से बहुत सी हमें नहीं पहचानती पर हमारे रिश्ते में बेहद करीब होती । अपने खास दोस्त को पहले से शिनाख्त करवा देते - बेटा वो तेरी भाभी है, गर्दन नीची रख 😊!
छोटे शहर में हर बुजुर्ग चाचा होते हैं तो चौक पे उदय चाचा की मिठाई की दुकान पर खास कर मिट्टी के भांड में बनाई हुई चाय के जायके का अलग मजा था, ये बात भी याद दीगर है कि उन्हें 5 में से 4 बार चाय का पैसा ही नहीं देता, बस खिलखिलाते हुए चच्चा प्रणाम कह देता ☺ कभी पैसे दिए भी तो वो इस तरीके से मुंह बनाते जैसे उनके हाथ में लिए पैसे का खबर चेहरे को भी नहीं है ।
कॉलेज से लौटने के क्रम में स्टेशन के साथ एक पहलवान भैया की चाय दुकान थी , वो उनदिनों लोहे के छड़ के एक सिरे को जमीन और दूसरे सिरे को अपने गर्दन में फंसा कर टेढ़ा कर देते और तो और दांत से ट्रक खींचने का माद्दा रखते थे। सच्ची है ये, शायद लिम्का बुक में भी दर्ज है उनसे भी कभी कभी फ्री की चाय मारते, बस् उनके बॉडी और बाइसेप्स के बारे में बड़ाई करनी पड़ती थी । महफूज की ड्रिंकिंग टी वाले बाहियात नोट्स पढ़ कर उस पहलवान भैया की याद आती है 😊
याद ये भी आ रहा, जाड़े के दिनों में चाय में अगर कॉफी छिड़क दो, तो चोफ़ी हो जाती थी 🙂 फिर अलग मज़ा व सुरूर!! वैसे ही इंसान में थोड़ी मेरी सी बेवकूफी हो तो वो भी सरल सहज सा लगने लगता है न ! वैसे इस चॉफी का टेस्ट अभी भी हम ट्राय करते रहते हैं। 😊
मुझे पटना के बाद ट्रेन पे मिलने वाली वो खास चाय , जिसको खराब से खराब चाय के नाम पर बेचा जाता या फिर रामकली चाय 👌 के नाम से बेचा जाता, खूब सारी इलाइची डली हुई वो दोनों चाय पहले घूंट में अच्छी लगती पर उतनी भी शानदार नहीं हुआ करती थी लेकिन हर बार ट्रेन यात्राओं में ढूंढ कर पीता हूँ 😊
दिल्ली में कॉफी बोर्ड या टी बोर्ड की चाय बेहद घटिया लगती है, चाय दूध चीनी आदि मिलाते मिलाते वो चाय रहती है नहीं है, बकरी का दूध लगने लगता है। पर दोस्तों के साथ उसका भी खास मजा है । कभी बेस्ट सेलर प्रकाशक शैलेश भारतवासी की बनाई निम्बू वाली चाय भी शानदार होती है, उनके घर जाने पर स्पेशल आर्डर कर के मंगवाते थे 😊
एक सच्ची बात ये है कि मैंने कैफे कॉफी डे में पहली बार कॉफी तब पी थी जब चौराहे वाली सीढियां फेम किशोर जी से मिलने गए थे। 'चौराहे पर सीढ़ियां' प्रकाशित होने वाली थी, मेरी नजर में वो चेतन भगत टाइप हुआ करते थे और उसके पहले तक मेरा ज्ञान कहता था कि चाय/कॉफी का अधिकतम मूल्य 20-25 रुपये ही हो सकता है। पर उस दिन जब मैनर्स दिखाते हुए मैं पे करता हूँ कहा और बिल काउंटर पर 5 कॉफी का जो बिल बताया गया, मेरे पसीने आ गए थे, क्योंकि किसी वजह से सिर्फ 500 रुपये ही थे और पूरा याद नहीं पर सारे पैसे खत्म हो गए थे 😊 वैसे डिप वाली चाय भी बेहद घटिया होती है ।
अंतिम में एक बात और, मैं अदरक वाली चाय या कॉफी अच्छी बनाता हूँ, और ये बात मेरी सबसे बड़ी आलोचक मेरी बीबी भी कहती है, इसकी मुख्य वजह शायद ये है कि बनी बनाई चाय इनदिनों मैडम को मिलने लगी है । और तो और जब सुबह ये ऑर्डर करते हुए कहती है, आज आपने चाय अभी तक नहीं बनाई, तो फिर मन करता है पानीपत की पांचवी लड़ाई किसी दिन लोधी कॉलोनी में होगी 😊
हाँ तो खूबी इतनी भी नहीं कि दिल में घर बना पाएंगे....पर अपने ठेठपन की वजह से भुलाना भी आसान नहीं ...इतना तो कह ही सकता हूँ 😊
तो चाय/कॉफी बनाने के ज्ञान से याद आया
"ज्ञान सबसे बड़ा धन है।"
फिर स्वयं से पूछा - मैं कितना धनवान हूँ ??
अंदर से आवाज आई - बेटा आप तो बीपीएल कार्ड धारक हो, इस मामले में , ज्यादा पकाओ मत 😊
वैसे आज कोई इंटरनेशनल वाला चाय का दिन है तो इतना ज्ञान पेलना बुरा भी नहीं।
हैप्पी चाय डे 😊 (पुरानी पोस्ट, पुरानी नहीं रहती)
~मुकेश~


Thursday, July 30, 2020

बेस्ट फ्रेंड

Memories ने बताया कि कुछ मेमोरीज ताजिंदगी अंदर सहेजी रहती है या रहनी चाहिए। 💝

तो बस याद आ गई कुछ बदतमीजी, कुछ शौखपना, कुछ खुद को सबके बीच अहम दिखने की कोशिश। तो बस याद आया, कि स्कूल - कालेज के दिनों में, कितने थेथर से होते थे न दोस्त ! साले, चेहरा देख कर व आवाज की लय सुनकर परेशानी भाँप जाते थे । एक पैसे की औकात नहीं होती थी, खुद की, पर फिर भी हर समय साथ खड़े रहते थे, वैसे मेरी औकात तो अधेली की भी नहीं थी। फिर फीलिंग ऐसी आती थी जैसे अंबानी/टाटा हो गया हूँ, पता नहीं किस किस से लड़ लेते थे। साले झूठ मूठ का पिटवा भी देते पर बाद में मलहम भी लगाने आ जाते, ऊपर से कमीने चाय भी पी जाते या फिर टॉफियां। 🎁

गाँव से 2 किलो मीटर दूर हाई स्कूल था, छोटा सा 4 कमरे का। छोटे से स्कूल में  निक्कर पहने, बड़ी बड़ी कारस्तानी करते और वो थेथर दोस्त बड़े प्यार से अपना पीठ आगे कर देते, जब जब लगा कहीं ज्यादा तो न पिट जाऊंगा, तभी कुछ और चौरस पीठ साथ मिले कि तू बेशक कमीना है पर चहेता है..... हाँ तो काहे का फ्रेंडशिप बैंड, पजामे की डोरी से ही काम चल जाता था उन दिनों ☺️

पर उम्र के बढ़ते कदमों के साथ, लाइफ सेटेलमैंट के अलग अलैह जगह के वजह से ऐसी दूरी बन गई कि एक दूसरे के चिंता को भाँप कर भी अनदेखी करना तो दूर की बात है, ये तक नहीं पता कि इन दिनों कौन कहाँ क्या कर रहा, उसे भी कभी फिक्र है भी या नहीं। पर जिंदगी के रोडवेज़ पर ऐसे ही चल रहा सबकुछ, जो सहज सा लगता है अब......... है न यही सच ! 😊

वैसे भी दोस्तों से इतर, जिनको हम दुश्मन जैसा समझते हैं या जिनके लिए मन में जलन रखते हैं, सामान्यतः उनके पीछे भी उनके प्रति बदजुबानी दिखाते हैं। पर कुछ से ट्यूनिंग पहले दिन से ऐसी होती है कि हर वक़्त बेवक्त उनके लिए स्नेह ही झड़ता है। ऐसे कुछ, जिन को हम बेहद अपना सा मानने लगते है, अपने बेहद करीबी परिधि में दिखने वाले ऐसे दोस्तों या ऐसे घरवालों के लिए सामान्यतः सामने से तो झिड़क देते हैं, लड़ लेते हैं या कोई ऊलजलूल सा सम्बोधन दे देते हैं या फिर अपने अनुसार ऑर्डर देने वाले जुबान में बात करते हैं पर अपने सभी कठिनाइयों के लिए भी पहले उन्हें ही ढूंढते हैं।  💐

स्नेह जताने का ये अजब गजब तरीका सबसे अधिक मेरे में है। ऐसा ही घर वालों के साथ भी कर बैठते हैं। शायद कहीं इसको हक़ ज़माना भी कह सकते हैं | ऐसे दोस्त जैसे लोग कहीं भी हो सकते हैं, ऑफिस में, फेसबुक पर या घर वाले तो होते ही हैं | 😊

हक जताने से याद आया, हमें खुद में बॉक्सर सी फीलिंग भी बहुत आती है और अपने बेहद करीबी यानी बेहद अपने से दोस्त पंचिंग बैग सी फीलिंग्स देते हैं । हम बेवकुफ, जब चाहे दे दमादम 😊, अपना सुनाने लगते हैं। शायद कहीं मेरे अंदर का शख्सियत धीरे धीरे उनपर अपना मालिकाना हक सा जताने लगता है। सही-गलत से इतर बात तब बस ये होती है कि उसको मेरी बात मान लेनी चाहिए | पर मानता कोई नहीं, ये भी पूर्णतया सच। 

बहुतों बार, पंचिंग बैग भी रिटर्न किक बॉक्सर के चेहरे पर मार देता है। और चोट के परिमाण से इतर वो एकाएक लगने वाला किक बेहद घातक होता है। अंदर तक हिला देता है। 😢

खैर, ऐवें हैप्पी फ्रेंडशिप डे कह कर खुद को खुश कर लेते हैं, कोई कैसा भी हो जाये, खुद को ख़ुश करने के लिए इतना तो सोच रखेंगे ही कि 😊

मुझमे बेस्ट फ्रेंड मटेरियल भाव की अधिकता है! 💐

है न 😊😊😊

~मुकेश~ 💝


Wednesday, July 15, 2020

ऋषभ : मेरा बेटा



मुझे स्वयं से अत्यधिक नाराजगी की एक वजह ये दिखती है कि यश-ऋषभ पर उनके बचपन में मैंने उनपर हाथ चलाये। शायद इसका कारण मेरे अंदर तथाकथित गुस्से वाले पापा का बैठा होना था, साथ ही अत्यधिक उम्मीदों की गठरी भी, इनके सर पर रखना भी था । पर समय के बदलते रुख के साथ व फेसबुक पर ही अन्य पैरेंटिंग टिप्स ने मुझमे इस नजरिए से, अत्यधिक बदलाव आया। कुछ बरसों बाद से ही, कभी कान मरोड़ना भी हो तो ये काम अंजू का होता है । बदलते समय और अनेकों उदाहरण ने ये भी विश्वास दिलाया कि बच्चे जो मन से करेंगे वो ही बेहतरीन होगा और अब के बच्चे अपने भविष्य के लिए ज्यादा सजग हैं। बस इस विश्वास को दोनों ने बनाये रखने की कोशिश की, इतना देखना ही सबसे सुखद होता है। हर बच्चे का टैलेंट एकदम जुदा है, यश को कम नम्बर आते हैं पर उसको शानदार खेलते देख कर किसी मित्र ने कहा जो शानदार स्पोर्ट्समैन है, वो कमजोर या लल्लू हो ही नहीं सकता। बस मेरे नजरिये में वो बेस्टेस्ट हो गया।

ऋषभ एक दम अलहदा है, जो करेगा पागलपन के हद तक करेगा। एक बार यश को शानदार टीटी के लिए स्कूल में शाबाशी मिलते देख इसको धुन चढ़ गया कि शायद पढ़ाई से बेहतर टीटी है, और बस क्लासेज बंक कर उसके समय टीटी टेबल पर लगने लगे। फिर स्कूल के नंबर 1 और 2 यश-ऋषभ हो गए।

मैंने इन्हें स्कूल के अलावा कभी ट्यूशन का ऑप्शन ही नहीं दिया। और इसके वजह के रूप में इनको अपनी पे-स्लीप दिखाता रहा और बजट बताता रहा। मैंने अपने जिंदगी से जाना है कि कमियां जरूरी ही होती है, क्योंकि चैन लेने नहीं देती। हां पिछले कई वर्षों से मेरिटनेशन के ऑनलाइन क्लासेज के लिए रजिस्ट्रेशन जरूर करवा देता था ताकि कुछ जरूरी सब्जेक्टिव if-buts क्लीयर होते रहे। एक और वजह ये थी कि दोनो एक ही क्लास में टेंथ तक थे, तो एक के ही रजिस्ट्रेशन से दोनो का काम हो जाता था। दोनो ने टेंथ का हर्डल पार किया।

बेहद अच्छे नम्बरों से ऋषभ ने ग्यारहवीं में कदम रखा था। पर मेरे दिमाग में ये समझ नहीं आई थी कि JEE इंजीनियरिंग के लिए किसी अच्छे इंस्टीटूट में दाखिला जरूरी है। वो तो साल बीत जाने पर भाग्य चमका जो जनवरी 2019 में स्कूल के फिजिक्स टीचर ने नारायणा इंस्टिट्यूट के टीचर को मेरे घर भेजा और एक वर्ष के फीस में 60% की छूट की पेशकश की।

हम सरकारी बाबू की फितरत है कि डिस्काउंट में कुछ मिले तो दिमाग चौंधियाने लगता है। फिर ये नहीं सोचे कि 40% फीस भी कम नहीं है, बल्कि 60% जो राशि नहीं देनी पड़ी उसने आकर्षित कर लिया। पर इस एडमिशन ने भी मुझमे कोई खास उम्मीद नहीं बनाई थी । हां मैडम के दिमाग मे कुछ ज्यादा चलने लगा, इसने अपनी 15 वर्ष पुरानी नौकरी झटके में छोड़ दी, जबकि बजट के अब लड़खड़ाने की बारी थी। लेकिन वो अडिग रही। अब फुल टाइमर गार्जियन घर में होता था, जबकि दोनो ने पूरी जिंदगी क्रेच में गुजारी थी।

समय बढ़ा, और ऋषभ में बदलाव ऐसा था कि स्टूडेंट लाइफ में मुकेश जितने घण्टे पढ़ता था, उसका तीन गुना वो पढ़ने लगा। पूरी-पूरी रात लगातार की पढ़ाई के उसके बदलाव में हम सबकी उम्मीदें कुछ चमकी। पर जो सिलेबस दो साल का था, उसको एक वर्ष में करना, इतना हल्का भी नहीं था। नारायणा के टीचर ने कहा था - सर आपने गलती की जो पहले एडमिशन नहीं दिलवाया,और मुझे तब लगा शायद अपने तरह वाला स्नातक बेटा ही बना पाऊंगा। हर वीक टेस्ट के मार्क्स SMS आते जो 15-20% होते जो धीरे धीरे बढ़कर 40% तक गए। फिर PTM में इंस्टिट्यूट के टीचर ने चुपके से बताया अगर ये 40% 55+ तक जाए तो खुश हो जाना। JEE एंट्रेंस और 12वीं दोनो ही साथ करना, कम तो नहीं ही था।

जनवरी में JEE Mains का पहला एग्जाम हुआ और लड़के ने छक्का तो नहीं मारा पर जो आया वो उसके माथे को चूमने के लिए उपयुक्त था। एक औसत लड़के ने 97 परसेंटाइल लाकर चकित किया और इस तरह JEE एडवांस के परीक्षा में बैठने के लिए अहर्ता प्राप्त कर ली, पर मेरे अंदर का बेवकुफ बाप इसलिए परेशान होगया क्योंकि पता चला 12वीं में जब 75% मार्क्स होंगे तभी JEE क्लीयर होना कहलाता है। धुकधुकी तो जिंदगी भर की बात है । मेंस के बाद वो एडवांस की तैयारी ज्यादा करता और मैं बस उससे डेली पूछता - 12वीं में 75% आ जाएंगे न।

खैर, JEE Mains का दूसरा ऑप्शन और Advance का exam date तो अब ऐसे बढते जा रहा है कि पता ही नहीं चल रहा कि भविष्य में क्या छिपा है।

कल जब 12वीं का रिजल्ट निकालने के क्रम में CBSE की वेबसाइट क्रेश हो रही थी, तो सांसे मेरी थम जा रही थी। अंततः घण्टों भर बाद जब रिजल्ट निकला तो मैंने सबसे पहले जोड़कर देखा कि 75% तो है न।

अत्यधिक समय विज्ञान और गणित में इन्वॉल्व रहने के कारण और 12वीं में 5th सब्जेक्ट अर्थशास्त्र से फिजिकल एडुकेशन करने के वजह से इनमें ही कम आ गए पर विज्ञान जिंदाबाद ने ऐसा नारा लगाया कि स्कूल के पहली पंक्ति का छात्र ही रहा। फिजिक्स केमिस्ट्री टॉपर इन स्कूल।

अभी भी अनेक तरह की दिक्कतें हैं, अब तक पता नहीं कि कब एडवांस का एग्जाम होगा, कौन सा इंजीनियरिंग कॉलेज मिलेगा, कैसे क्या करना है, पर खुशियां इन कठिन वजहों के बीच से मुस्कुरा रही है।

आप सबका स्नेह जरूर मुस्कुराहट से भरे होंठ को लंबी करेगा । .... है न।।

~मुकेश~
(तस्वीर 12वीं के अंतिम परीक्षा के बाद वाले दिन की है, जब वो अकेले पहली बार अपने दोस्त के साथ घूमने गया)


Monday, May 18, 2020

मदर्स डे पर पिता को बधाई !

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एक हम सबकी यानी हमारे एजग्रुप या उससे कुछ पहले की जस्ट कॉलेज वाली जिंदगी हुआ करती थी, उस समय ग्यारहवीं यानी आईएससी भी कॉलेज था। तब पापा मने डांट या पिटाई ही कहलाया करता था। पापा तो रावण होते थे ☺️ (उस समय के सोच के हिसाब से)! बैठे बैठे चिल्लाते थे, या फिर घर में घुसते ही मुक्कू......., तनियो चैन नहीं था। हां, मम्मी ही थोड़ा बहुत दोस्त जैसन लगती थी, या मीडियेटर थी, कोई भी जरूरत को पूरा करवाने का ठेका मम्मी पर ही लाद दिया करते थे उन दिनों 😊

फिर समय बिता, कहाँ से कहाँ आ गए, आजकल के शहरी दुनिया में, अधिकतर के तरह सिंगल फेमिली होने लगी। ऐसे में पापाओ को भी लगा थोड़ा बहुत मम्मी वाला काम कर दो तो शायद प्यार ज्यादा मिलेगा साथ ही देखेगा भी कौन ☺️ । ऐसे में मायें भी चालाकी करने लग गईं, चुपके से मम्मियों ने अपने अंदर के 50-60 प्रतिशत अम्मा को पप्पा में ट्रांसफर कर दिया । 😊

शुरुआत तो ऐसे हुआ, मम्मियां उठते ही पापा को ताना देने लगीं, कि देखिए जी बच्चे उठ नहीं रहे, आपसे ही उठेंगे, कान पकड़ कर उठाइये, स्कूल में लेट होगा। और फिर इस तरह धीरे धीरे ड्यूटी ट्रांसफर हो गया, अब सुबह-सुबह बच्चो को पापा को ही उठाना होता है, पापा ही ब्रश करवाएंगे, चड्डी पहनाएंगे, पापा ही दूध बना के पिलायेंगे, पापा ही परांठे का कौर मुंह में ठुंसेंगे। स्कूल का शर्ट जल्दी जल्दी पापा ही भोरे भोरे प्रेस करेंगे । मने सुबह स्कूल जाने तक मम्मी बस नाश्ता बना देगी बाकी आप ही करो, ये मुझसे सुनते नहीं, बस तक लेकर भी पापा ही जायेंगे । ☺️

समय बिता, ऑफिस जाने से पहले पीटीएम में चले जाना, आपका लाडला है आप ही डांट सुनो। ऐसे में पापा जो अपने पापा को याद कर पापा बन बनकर थक चुके होते हैं । उन्हें फ़ॉर चेंज मम्मी की duty ज़्यादा प्यारी लगने लगती है । फिर तो ऐसा समय बदला कि बदल ही गया, अब उल्टा होता है, पापा बच्चे को कहते हैं जल्दी खा लो, जल्दी पढ़ लो , मम्मी गुस्सायेगी। और ऐसे में अब ज़्यादा दुलार को बैलेंस करने के चक्कर में मम्मी विलेन सी बन गयी बच्चों के नज़र में । मम्मी की बल्ले बल्ले हो चुकी है 😊, क्योंकि वो ऐसा कुछ ही तो चाहती थी।

पापा बच्चों के साथ टीवी देखेंगे, मम्मी आकर चिल्लाएगी - खुद तो बिगड़ैल हैं ही मेरे बच्चों को भी बिगाड़ दिया और बस टीवी बन्द! स्कूल जाते समय बच्चों को पैसे दो तो उसमें अब मम्मी कटिंग करेगी, इतना क्यों, जोड़ कर बताओ, ये तुमरे अब्बा तो तुमलोगों को सर चढ़ाए हैं। बेचारे पापा की सिट्टी पिट्टी गुम। 😊

बेचारे डैडी, जो प्यार दिखाने के चक्कर में कुछ ड्यूटी शेयर भर की थी, अब भुगतने लगते हैं 😊

तो आज पप्पा के अंदर वाले 50-60 प्रतिशत अम्मा को भी मदर्स डे की शुभकामनाएं ☺️ साथ ही, नए पापाओ को समझाइश है कि मम्मी के चंगुल में न फंसे ☺️☺️

~मुकेश~


बोधि प्रकाशन के लाइव पर 7 हजार व्युज :)