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कुछ बीडी वाले पटाखे, बहुत थोड़ी सी फुलझड़िया, पिस्तौल में लगा कर फोड़ने वाली ......लम्बी सी लत्ती ..........आलू पटाखा जिसको जोर से दीवाल पर मारने से आवाज होती, और सांप की टेबलेट .. बस हमारी दिवाली इतनी ही होती थी !!
पर तैयारी खूब चलती थी............ आखिर पैसे की अहमियत थी :)
घंटो उन पटाखों को सूप (बांस की बनी होती थी) में रख कर धुप में सुखाते थे, और साथ में खुद भी सूखते :) .........
जिस पेड़ से "जुट" निकलता है उसके सूखे तने को संठी कहते हैं, उनको बाँध फिर घर के अन्दर जलती दिए से जलाते और फिर दरवाजे पर अन्दर / बाहर करते हुए कहते "लक्ष्मी घर, दरिदर बाहर" बोलते......... और फिर मैया के साथ चलकर सबको बाहर एक जगह जमा कर देते !!
दीदी घर-कुन्ना (घरोंदा) बानाती, छोटे पापा उसकी रंगाई पुताई करते और हमें सिर्फ ईंट विनट लाने का काम मिलता .......... रात में उसके सामने सारी बहने पूजा कर के मिटटी के छोटे छोटे गोले में भर कर मुढी और बतासा देती :)
सबसे मजेदार बात मिस हुए पटाखे से निकले बारूद को जमा कर के दुसरे दिन उसको जलाने की होती ........... वैसे आज भी जब ऐसा कुछ करते बच्चो को देखने पर, बचपन फटाक से सामने आ जाता है . ......... ऐसा ही कुछ एक बार मैंने अपने मौसी के शादी के दुसरे दिन किया था और पूरा हाथ जल कर गल गया था :( दाहिने हाथ की हड्डियाँ दिखने लगी थी !
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कपडे नए नहीं होते थे, पर पूरी दुनिया साथ थी अपनी, घर के सारे लोग, बड़ा परिवार, मैया बाबा ...... खीर पूरी ............ और दिवाली का चमकता प्यार !!
अब भी पूरी दुनिया साथ होती है, पर दुनिया सिमट गयी
अंजू - यश - रिषभ ...........और मैं !!
चमकती शुभकामनायें ............ आप सबको :) :)