कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Wednesday, October 4, 2017

'जिंदगी मने दुख'



'जिंदगी मने दुख' - खुशियों के चारदीवारी में बेशक आप बसते हों, बेशक आंखे खुलते ही आप जो चाहते हों वो सामने हो और तो और नींद के आगोश में जाने पर भी सपने भी वही देखते हैं जो आपके चेहरे पर सिर्फ मुस्कुराहटें लाती हो फिर भी हर एक हल्की सी टीस पर तुरंत मन कह उठता है इस पत्थर को भी मेरे ही रास्ते आना था क्या, उफ्फ।
खैर, वैसे भी जब आप बेवजह परेशान होने लगते हो तो आपको खीर के कटोरी में भी कंकड़ मिलना तय हो जाता है । फिर तो खीर के मिठास के स्वाद के बदले हर पल आप चावल को ऐसे दबाते हैं जैसे कोई पत्थर दोनों दांतों के बीच हो | हर मेहनत के तत्क्षण जो अंदर से स्वयं के लिए "वाह" निकालना चाहते हो वो पलक झपकते ही एक अक्षर बदल कर "आह" में बदल जाता है - ताकि अंदर संतुष्टि हो कि चलो अभी दर्द का मौसम लगातार चलेगा ।
"एक चित्रकार से दिल के दरवाजे कि तस्वीर बनाने कहा गया, उस ने बहुत हसीन दरवाजा बनाया, लेकिन उसका हेंडल नहीं था.....
किसी ने पूछा दरवाजे में हेंडल क्यूं नहीं लगाया..
तो वो बोला दिल का दरवाजा अन्दर से खोला जाता है.. बाहर से नहीं.." ,
बेवकूफ चित्रकार था, उसको क्या पता हम सबके दरवाजे की चिटखनी ही अटकी हुई है।
इनदिनों पता नहीं क्यों हम सब अपने छत के आसमान को नैसर्गिक रूप में नहीं देख पा रहे, नजरें कहती है आसमान ज्यादा ही स्याह लगने लगा है। यानी दर्द ज्यादा ही महसूसने लगे हैं हम| मन कहता है तू तो बहुत जिगरा वाला है, पर इनदिनों जो मानसूनी बयार बह रही है, वो अपने साथ अजब गजब खेल रचते हुए बह रहा है, बता रहा कभी कभी परेशान होना भी सीख ले बेटा। पर परेशान ही होना, पराजित नहीं। हम निम्न माध्यम वर्गीय परिवारों से जुड़े लोगों के उम्मीदें भी तो छतीस होती हैं, बेचारा भगवान् भी खीज कर कह उठता है एक तो लड्डू चढ़ाते हो वो भी तोड़ कर, और ये भी वो भी, फलाना ढीमाका सब के सब पूरी फाइल बना कर लाते हो .......जाओ कैंसिल करता हूँ तुम्हारे इन उम्मीदों को चार्ट, एवें परेशान न करो | बेचारा भग्गू भी ज्यादा ही तड़ी देते हुए कह उठता है -
कितने कमजर्फ हैं ये गुब्बारे
चंद साँसे पाकर फूल जाते हैं
पर जरा सा ऊंचाई पाकर
सब भूल जाते हैं ........
कुछ गुब्बारे किस्म के इंसान सी फीलिंग रहती है हम निम्न मध्यम वर्गीय व्यक्तियों में ।
ले दे कर दोस्त बचते हैं, तो उनमे भी रियल वाले दोस्त जिनके बीच कभी शहजादे वाली फीलिंग हुआ करती थी, वो भी सब बूढ़े हो गए अपने अपने वजहों से और अपने दर्द की कटोरियों या बक्सों को ही सहेज रहे तो उनके पास अब शब्द भी कहाँ होते हैं जो कह उठे - हम हैं न तेरे साथ | इतना कहने भर से भी शायद खिलखिलाहट का टोकरा उमड़ पड़ता अपने 'हा हा हा हा' वाले ठसक आवाजों से । मन कह उठता है - जिसके कंधे पर बैठकर दरिया पार करना सोचा था
उसके तो खुद के घुटने दर्द से कराह रहें हैं ।
हाँ इस सोशल मिडिया ने दोस्तों की पांच हजारी लिस्ट पकड़ा रखी है, उनमे से भी पता नहीं कौन से वजह बेवजह वाले अहसान हमने समेट रखा है जो नजर मिलते ही गुर्रा उठते हैं - पहले वाला अहसान तो उतारों जो नए दर्द का खेवनहार बन जाएँ हम | बेवजह दोस्ती जिंदाबाद के नारे के साथ झंडा उठाने चला था, अब झंडे का डंडा ही बचा रहा गया |
अंततः खुद पे है भरोसा, खुद में है दम ! वन्दे मातरम् !!
बस एवें अक्कड़ बक्कड़ बम्बई बो, अस्सी नब्बे पुरे सौ ..............खुद को समझ बैठे हैं, जिंदगी न तो बह रही न थम रही, बस ईएमयु ट्रेन के तरह, स्पीड पकड़ने से पहले ही अगले स्टेशन पर धचक से रुक जाती है .........और तो और चेन पुलिंग का भी पूरा बंदोवस्त है | बस देखते हैं कब परमानेंट वाला हैप्पी बड डे होता है ........... !!
"कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे ............उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे "
~मुकेश~

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