कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Friday, February 19, 2021

चाय की चाह



चाय के मीठे घूंट की शुरुआत मैया के पल्लू को दांतों में दबाये, उसके होंठों से लगे स्टील के ग्लास को उम्मीदों के साथ ताकने से हुई। फिर ये रूटीन कब फिक्स हो गया याद नहीं कि मैया के चाय के ग्लास के अंतिम कुछ घूंट पर मुक्कू का नाम रहेगा। शायद कभी एक दो बार मैया से गलती हुई और खाली ग्लास जमीन पर रखने पर उसको लगा, उफ्फ्फ ये क्या हुआ, भूल गयी। फिर हमने भी अपने रोने के सुर का वेवलेंथ इतना तेज किया कि उसके कंपन से पूरा घर सहित मैया भी कांप गयी व उन आंसुओं के धार में बहने लगी चाय की जरूरत| फिर तो एक छोटा सा कप या बचपन वाली छोटे स्टील की ग्लास में मेरे नाम का भी चाय बनने लगा, कभी कभी उस चाय के साथ एम्प्रो या मिल्क बिकीज का बिस्किट भी हुआ करता । वो अलग बात है कि इतने शुरुआती दौर से चाय का शौकीन होने के बाबजूद मन यही कहता कि "चाय ऐसी चाहिये जो दूधगर मिठगर होए" यानी अधिक दूध और होंठ चिपकने लायक मीठी चाय ही गांव में रहने के दिनों में पसन्द हुआ करती थी 😊
कॉलेज के दिनों में , सुबह-सुबह घर में बनी चाय के बदले सड़क तक जाकर अपने दोस्त खुर्शीद के छोटी सी दुकान से उसकी बनाई चाय और बिस्किट का मजा लेना भी अजीब नशा था, मुझे अभी भी लगता है उतनी शानदार चाय और कहीं नहीं पी, लगातार उबलते दूध की वो सौंधी महक नहीं भूलने लायक थी । साथ ही, बेवजह की पॉलिटिकल बहस भी यादगार हुआ करती थी। आजकल बड़ा आदमी हो गया मेरा ये चाय वाला दोस्त 😊
उन्हीं दिनों कॉलेज के सामने की झोपड़ी में मौसी की बनाई उफ्फ्फ वो, सबसे घटिया चाय 😊 जो खूब सारी चीनी, और धुएं के वजह से बनती थी और समोसा भी दिल के बेहद करीब था क्योंकि कोयले के धुँए में उबली चाय जैसा कुछ, को हम क्यों पीते थे पता नहीं, पर उस चाय के सहारे दूर तलक आती-जाती लड़कियों को ताड़ने पर बहस होती, उनका इतिहास-भूगोल क्या रसायन शास्त्र भी जान लेते थे । उनमें से बहुत सी हमें नहीं पहचानती पर हमारे रिश्ते में बेहद करीब होती । अपने खास दोस्त को पहले से शिनाख्त करवा देते - बेटा वो तेरी भाभी है, गर्दन नीची रख 😊!
छोटे शहर में हर बुजुर्ग चाचा होते हैं तो चौक पे उदय चाचा की मिठाई की दुकान पर खास कर मिट्टी के भांड में बनाई हुई चाय के जायके का अलग मजा था, ये बात भी याद दीगर है कि उन्हें 5 में से 4 बार चाय का पैसा ही नहीं देता, बस खिलखिलाते हुए चच्चा प्रणाम कह देता ☺ कभी पैसे दिए भी तो वो इस तरीके से मुंह बनाते जैसे उनके हाथ में लिए पैसे का खबर चेहरे को भी नहीं है ।
कॉलेज से लौटने के क्रम में स्टेशन के साथ एक पहलवान भैया की चाय दुकान थी , वो उनदिनों लोहे के छड़ के एक सिरे को जमीन और दूसरे सिरे को अपने गर्दन में फंसा कर टेढ़ा कर देते और तो और दांत से ट्रक खींचने का माद्दा रखते थे। सच्ची है ये, शायद लिम्का बुक में भी दर्ज है उनसे भी कभी कभी फ्री की चाय मारते, बस् उनके बॉडी और बाइसेप्स के बारे में बड़ाई करनी पड़ती थी । महफूज की ड्रिंकिंग टी वाले बाहियात नोट्स पढ़ कर उस पहलवान भैया की याद आती है 😊
याद ये भी आ रहा, जाड़े के दिनों में चाय में अगर कॉफी छिड़क दो, तो चोफ़ी हो जाती थी 🙂 फिर अलग मज़ा व सुरूर!! वैसे ही इंसान में थोड़ी मेरी सी बेवकूफी हो तो वो भी सरल सहज सा लगने लगता है न ! वैसे इस चॉफी का टेस्ट अभी भी हम ट्राय करते रहते हैं। 😊
मुझे पटना के बाद ट्रेन पे मिलने वाली वो खास चाय , जिसको खराब से खराब चाय के नाम पर बेचा जाता या फिर रामकली चाय 👌 के नाम से बेचा जाता, खूब सारी इलाइची डली हुई वो दोनों चाय पहले घूंट में अच्छी लगती पर उतनी भी शानदार नहीं हुआ करती थी लेकिन हर बार ट्रेन यात्राओं में ढूंढ कर पीता हूँ 😊
दिल्ली में कॉफी बोर्ड या टी बोर्ड की चाय बेहद घटिया लगती है, चाय दूध चीनी आदि मिलाते मिलाते वो चाय रहती है नहीं है, बकरी का दूध लगने लगता है। पर दोस्तों के साथ उसका भी खास मजा है । कभी बेस्ट सेलर प्रकाशक शैलेश भारतवासी की बनाई निम्बू वाली चाय भी शानदार होती है, उनके घर जाने पर स्पेशल आर्डर कर के मंगवाते थे 😊
एक सच्ची बात ये है कि मैंने कैफे कॉफी डे में पहली बार कॉफी तब पी थी जब चौराहे वाली सीढियां फेम किशोर जी से मिलने गए थे। 'चौराहे पर सीढ़ियां' प्रकाशित होने वाली थी, मेरी नजर में वो चेतन भगत टाइप हुआ करते थे और उसके पहले तक मेरा ज्ञान कहता था कि चाय/कॉफी का अधिकतम मूल्य 20-25 रुपये ही हो सकता है। पर उस दिन जब मैनर्स दिखाते हुए मैं पे करता हूँ कहा और बिल काउंटर पर 5 कॉफी का जो बिल बताया गया, मेरे पसीने आ गए थे, क्योंकि किसी वजह से सिर्फ 500 रुपये ही थे और पूरा याद नहीं पर सारे पैसे खत्म हो गए थे 😊 वैसे डिप वाली चाय भी बेहद घटिया होती है ।
अंतिम में एक बात और, मैं अदरक वाली चाय या कॉफी अच्छी बनाता हूँ, और ये बात मेरी सबसे बड़ी आलोचक मेरी बीबी भी कहती है, इसकी मुख्य वजह शायद ये है कि बनी बनाई चाय इनदिनों मैडम को मिलने लगी है । और तो और जब सुबह ये ऑर्डर करते हुए कहती है, आज आपने चाय अभी तक नहीं बनाई, तो फिर मन करता है पानीपत की पांचवी लड़ाई किसी दिन लोधी कॉलोनी में होगी 😊
हाँ तो खूबी इतनी भी नहीं कि दिल में घर बना पाएंगे....पर अपने ठेठपन की वजह से भुलाना भी आसान नहीं ...इतना तो कह ही सकता हूँ 😊
तो चाय/कॉफी बनाने के ज्ञान से याद आया
"ज्ञान सबसे बड़ा धन है।"
फिर स्वयं से पूछा - मैं कितना धनवान हूँ ??
अंदर से आवाज आई - बेटा आप तो बीपीएल कार्ड धारक हो, इस मामले में , ज्यादा पकाओ मत 😊
वैसे आज कोई इंटरनेशनल वाला चाय का दिन है तो इतना ज्ञान पेलना बुरा भी नहीं।
हैप्पी चाय डे 😊 (पुरानी पोस्ट, पुरानी नहीं रहती)
~मुकेश~


2 comments:

  1. आदरणीय/ प्रिय,
    कृपया निम्नलिखित लिंक का अवलोकन करने का कष्ट करें। मेरे आलेख में आपका संदर्भ भी शामिल है-
    मेरी पुस्तक ‘‘औरत तीन तस्वीरें’’ में मेरे ब्लाॅगर साथी | डाॅ शरद सिंह
    सादर,
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

    ReplyDelete
  2. कॉलेज के दिनों में , सुबह-सुबह घर में बनी चाय के बदले सड़क तक जाकर अपने दोस्त खुर्शीद के छोटी सी दुकान से उसकी बनाई चाय और बिस्किट का मजा लेना भी अजीब नशा था, मुझे अभी भी लगता है उतनी शानदार चाय और कहीं नहीं पी, लगातार उबलते दूध की वो सौंधी महक नहीं भूलने लायक थी । साथ ही, बेवजह की पॉलिटिकल बहस भी यादगार हुआ करती थी। आजकल बड़ा आदमी हो गया मेरा ये चाय वाला दोस्त ,,,,,,बहुत सुंदर पोस्ट है हाँ इस चाय को जीवन में कोई भी नहीं भूलता है, आदरणीय शुभकामनाएँ ।

    ReplyDelete