कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Monday, December 25, 2017

सुनहरे पल : अटल बिहारी वाजपेयी के सान्निध्य में


बात 25 दिसंबर 2003 की है, मेरी पोस्टिंग प्रधानमत्री कार्यालय के जनरल सेक्शन में हुआ करती थी. उस समय के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्मदिन था, छुट्टी का दिन था, मेरे ऑफिसर ने एक दिन पहले ही कहा था मुकेश तुम ही आ जाना और सारे अरेंजमेंट देख लेना, सारे सीनियर ऑफिसर्स शाम में प्रधानमन्त्री जी को बुके प्रदान करेंगे ! 
ज्यादा पुरानी नौकरी थी नहीं, और न ही उस समय फेसबुक जैसी कोई बुरी आदत थी, तो कुछ ज्यादा ही सीरियस हुआ करते थे काम के प्रति, उस ख़ास कार्यालय में पोस्ट होने के कारण अपने आपको एवें पीठ थपथपाते थे 
मुझे ये भी याद है मेरी प्रधानमन्त्री कार्यालय में पोस्टिंग के बाद जो पहली चिट्ठी पापा को लिखी थी उसमे बताया था कि पापा यहाँ तो बाथरूम में भींगे हुए हाथो को सुखाने के लिए भी गरम पंखे लगे हैं , यानी ऐसे बैकग्राउंड से दिल्ली पहुंचे थे ! 
हाँ तो लिली के बड़े से बुके के साथ हम इन्तजार कर रहे थे प्रधानमन्त्री के कमरे के बाहर कोरिडोर में, सारे ऑफिसर्स, जिनमे से तत्कालीन प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्र, सचिव एनके सिंह, सैकिया सर और सभी आ गए, करीब साढ़े पांच बजे आदरणीय अटल जी ने कमरे में कदम रखा, करीब चार पांच मिनट बाद संयुक्त सचिव सेकिया सर ने दरवाजे से मुंह निकाल कर हौले से कहा - मुकेश बुके लेकर आओ, !! मुझे लगा बुके उन्हें पकड़ाना है, वो लोग खुद ही देंगे, ऐसा ही होना भी चाहिए था !!
पर ये क्या, कमरे में घुसते ही, सबने अटल जी को घेर रखा था, सैकिया सर ने कहा - "दो बुके !!"
आश्चर्यचकित सा, एक क्षण को मेरी टाँगे कांपी, मैंने आगे बढ़ कर, बुके आदरणीय अटल जी को पकडाया, उन्होंने बस पकडे रखा, सबने तालियाँ बजाई, फिर मैंने ही बुके को साइड के टेबल पर रख दिया !!
उस समय कैमरा या सेल्फी होता नहीं था, फिर प्रधानमन्त्री कार्यालय में कैमरा बेहद जरुरी कारणों से ही आता था | ऐसे में मेरे लिए उस ख़ास क्षण को तस्वीर में कैद किया नहीं जा सका, पर हाँ, झपकते पलकों के अन्दर कहीं, सहेज कर रख लिया मैंने !! मैं तो बस कैरियर ही तो था बुके का, लेकिन आंतरिक ख़ुशी, बेवजह हो गयी, जो आज तक सहेजे हैं.... !!
जिंदगी के कुछ ऐसे ही बेवजह से हैं #सुनहरेपलमुकेशके  
हैप्पी बर्थडे अटल जी 
अटल जी की एक कविता, कविता कोश से ;
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,
बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

~मुकेश~

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