कोई छह महीने पहले हमारे व्हाट्सएप ग्रुप गूंज में मेरी कुछ कविताओं पर प्रभात मिलिंद जी ने यादगार टिप्पणी दी थी, जो कुछ वजहों से सहेजे हुए रखा था। आज पहले उनकी समालोचनात्मक प्रतिक्रिया और फिर अपनी वो कविताएँ पोस्ट कर रहा हूँ, जिस पर प्रभात जी ने अपनी बातें रखी थी :
सबसे पहले मुकेश कुमार सिन्हा जी को कथादेश जैसी एक स्तरीय और प्रतिष्ठित पत्रिका में इन कविताओं के प्रकाशन की बधाई देता हूँ. कथादेश का मेरे जीवन में विशेष महत्व इसलिए भी है कि मेरी पहली कहानी इसी पत्रिका में छपी थी.
ईमानदारी से कहूँ तो बतौर रचनाकार मैं और मुकेश कुमार सिन्हा जी दो मुख़्तलिफ़ जॉनर के कवि हैं. इसके बावज़ूद उनकी कविताएँ और गद्यांश मुझे अच्छे लगते हैं और वक़्त मिलने पर सोशल साइट्स पर मैं उनको फॉलो भी करता हूँ. मेरी दृष्टि में वे मूलतः रोमान के कवि हैं. यहाँ मैं उस रोमान की बात बिल्कुल नहीं कर रहा जो प्रेम के रूढ़ प्रयायों के रूप में प्रयुक्त होता है. यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि वे एक आम जीवन की निष्ठुरता, कलुषता, भागमदौड़, विद्रूप और प्रतिकूलता के बरक्स जीवन के लिए ज़रूरी और अपेक्षित संतोष, सहजता, मनुष्यता और उत्सवधर्मिता के कवि हैं. यह हिंदी लेखन के लिए अनेक वैचारिक अन्तर्संघर्षों का समय है. कविताएँ अब विचारधाराओं के खांचों में रख कर लिखी जा रही हैं. कविताओं से अब संगीत के बजाए शोर और नारों की आवाज़ें प्रतिध्वनित होती हैं. बौद्धिकता और वैचारिकता के अतिभार से कविता अपने आधारभूत संस्कारों से निष्कवच होती जा रही है. अफ़सोस की बात यह है कि हमें भी इस ख़तरे का इलहाम नहीं. मैं स्वयं लेखन में एक स्पष्ट वैचारिकता का प्रबल पक्षधर हूँ. चाहूँ भी तो उनसे मुक्त नहीं हो सकता और न उनको खारिज़ ही कर सकता हूँ. विचारधारा मनुष्य की जीने की एक पद्धति है, लिहाजा कविताओं में भी उसका प्रवेश अनायास और स्वाभाविक रूप में होना चाहिए. सायास, आरोपित, सुविधाजनक और सीमित वैचारिकता कविता की अर्थबहुलता और उद्देश्य दोनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं. मुकेश कुमार सिन्हा जी की प्रस्तुत कविताएँ इन प्रदर्शनप्रिय बंधनों से मुक्त हैं इसीलिए वैचारिकता की धरातल पर अनगढ़ होकर भी भाव की दृष्टि से सहज और अच्छी हैं.
लेखन का लक्ष्य एक कोमल, संवेदनशील और सुंदर दुनिया की परिकल्पना है. इसलिए कविता के लिए भी सुंदर और कोमल होना उसकी बुनियादी शर्त है. ये कविताएँ इन शर्तों को निबाहने की कोशिश करती लगती हैं. कविताएँ आत्म-विलास का उपकरण नहीं होतीं, इस बात की साफ़ समझ कवि को है. और, यह एक महत्वपूर्ण बात है.
बेवजह होना अपने आप में एक सुखद और स्वस्थ मनःस्थिति है. 'वज़ह' के गणित में उलझ कर यह जीवन कब ख़र्च हो जाता है, हमें पता भी नहीं चलता. शायर को एक कलंदर होना चाहिए और कलंदर होने के लिए ज़ाहिरन वज़ह की ज़रूरत नहीं होती. हर संबन्ध और उपक्रम में कारण तलाशना हमारी एक प्रवृति बन गई है. लाभ-हानि की तार्किकता ने हमारे अंतर की प्रकृति और मन की पारिस्थिकी को स्थायी क्षति पहुंचाई है. बालसुलभ चुहलबाजियाँ कब हमारे भीतर से निकल भागीं और बाज़ार की गोद मे जा गिरीं, हम जान भी नहीं पाए.
दूसरी कविता को भी मैं पहली कविता का ही विस्तार कहूँगा. बल्कि सच तो यह है कि तमाम उम्र हम एक ही लंबी कविता को खंड-खंड में लिखते रहते हैं. चौथी और आख़िरी कविता भी दाख़िल तो प्रेम में होती है लेकिन जब सुरंग के दूसरे सिरे से निकलती है तो अपने साथ-साथ वक़्त और तजुर्बों के तावील सफ़र की रेत भी साथ बहाती निकलती है.
तीसरी कविता का कंटेंट अलग है. यह शहरी मध्यमवर्ग की आत्ममुग्धता, संवेदनाओं के यांत्रिकीकरण, संबंधों और मनुष्यता के संत्रास और किस्तों पर हासिल किए गए कथित सुखों के संभ्रम का वृतांत है. यह कविता एकाकीपन को एकांत से अलग करके देखने की एक कोशिश है.
मुकेश कुमार सिन्हा जी की काव्य-भाषा बहुत चमकीली तो नहीं है लेकिन बहुरंगी अवश्य है. इसमें देशज से लेकर कॉस्मोपोलिटन शब्दावलियों का प्रयोग दिखता है. कहन का लहजा भी अधिक संश्लिष्ट, दुश्वार या रपटीला नहीं. हर लिखने वाले के पास उसकी सोच का अपना स्पेस और अभिव्यक्ति का अपना सलीका होता है जिनके बीच वह ख़ुद को सहज महसूस करता है. कमियाँ कहाँ हैं, इसका अन्वेषण भी उसे ही करना होता है. तात्कालिक संकेत संभव हैं लेकिन आलोचकीय हस्तक्षेप से दीर्घकालिक सुधार संभव नहीं. इन प्रयासों से रचना के मूल ढांचे और लेखन की मौलिकता दोनों के सामने संकट खड़े हो सकते हैं. मेरी दृष्टि में अपनी भाषा और अपना आकार कविता स्वयं निर्धारित करती है. कवि को इतना सजग अवश्य होना चाहिए कि इस निर्धारण में वह कविता के साथ खड़ा रह सके. मुकेश कुमार सिन्हा जी की भाषा विरल नहीं भी तो तरल अवश्य है. उनकी संवेदनाओं में एक आम आदमी की संवेदना शामिल है. कविताएँ मुझे अच्छी और असरदार लगीं. आलोचना के टूल्स ज़रा निर्मम और सैद्धांतिक होते हैं. उनके बेवज़ह प्रदर्शन को मैं आलोचकीय उत्पात और आतंक मानता हूँ. आलोचक भी एक निरीह जंतु होता है. समालोचना जहाँ बाध्यता या आवश्यकता हो, वहाँ उसे ज़रूर यह काम पूरी निष्ठा से अंजाम देना चाहिए. अन्यथा यह दुराग्रह कमोबेश वैसा ही है जैसे हम किसी ड्राइवर पर तफ़रीह के उसे लिए लांग ड्राइव पर भेजने का 'एहसान' करने की खुशफ़हमी पाल लें.
कदाचित लंबी टिप्पणी हो गई. क्षमा चाहूँगा. इन सुंदर कविताओं के लिए मुकेश कुमार सिन्हा जी को फिर से बधाई.
सादर।
✒ Prabhat Milind, जमालपुर
मेरी कविताएँ :
1⃣ वजह बेवजह
एक सिक्का ले कर
रहा हूँ उछाल
जिसके दोनों तरफ़
है लिखा हुआ 'वजह' और 'बेवजह'
बस वजह-बेवजह की संभाविता के मध्य
बेमानी से वजूद के साथ
निभाना चाहता हूँ अम्पायर की भूमिका
गिरते ही सिक्के को
बस इतना ही हाथों उठा कर कहूँगा
ओह नो! फिर 'बेवजह की बात'!
तो वो, सुनो!
फिर से बेवजह ही सही
निहारना मेरे भीगे पोरों के बीच छलकती नज़रों को
मैं भी बेवजह ही कह उठूँगा
क्या बात, आज भी उतनी ही खुबसूरत!
ऐसे ही बेवजह के संवाद के मध्य
खूबसूरती के बखान के साथ
संबोधित करूँगा 'मोटी'
और कभी कहूँगा 'बेवकूफ'!
पर तुम खिलखिलाते हुए
इन पर्यायवाची शब्दों में ढूंढ लोगी
आत्मीयता और स्नेह!
सच, शब्दों का सम्प्रेषण
बदल देता है उनके अर्थ
अजब-गजब रिश्ते जो ढूंढते हैं
किसी न किसी वजह को
रिसते हुए उनमें हरदम छलकते देखा है
मैंने दर्द
उनके साथ दौड़ते देखा है उम्मीद को भी
पर बेवजह के होते हैं कुछ रिश्ते
यहाँ भी छलकती है बूंदें उन्हीं आँखों से
पर छलकती हुई वो चमक उठती हैं
अनंतिम खिलखिलाते किसी वजह से
कल फिर से सिक्के को उछालूँगा
और दूर तक फैली हरीतिमा के मध्य
वजह और बेवजह की ध्वनि के साथ
सिक्के के गिरने से पहले ही
चुपके से फिर बेवजह का सिरा कर दूंगा ऊपर
तुम भी बेवजह खूबसूरत लगने लगना
आखिर बेवजह की बातों में वजह ढूंढना ही सबकुछ है
ताकि खिलखिलाती नज़रों का सुख
लगते रहे अपना
कल बेवकूफ का पर्यायवाची शब्द
बकलोल कहूँगा!
समझी न!
2⃣ लाल इश्क
सूखी टहनियों के बीच से
ललछौं प्रदीप्त प्रकाश के साथ
लजाती भोर को
ओढ़ा कर पीला आँचल
चमकती सूरज सी तुम
तुम्हारा स्वयं का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो-दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म
बेचारी दोपहर भी
करती है चुगली दिन और रात को
शायद जलनखोरी के मारे ही तो
तपती है दोपहरी
तभी तो जलनखोर से देखा न जा रहा
सौतिया डाह जैसा है न
चटख हो रही देख कर तुम्हे
वहीं
चमकता पुरनम की चाँद सा
तुम्हारा चेहरा
तुम्हारे होंठो पर तिल
हाँ चाँद में भी तो है न दाग
दिन बीता
अब गोधूलि के पहर पर
पार्क में दूर वाले पेड़ के पीछे से
आया भोर का तारा
मध्यस्थता करने को शायद
ताकि सूरज तारे चन्दा जैसे
खगोलीय नैसर्गिक पिंडो सा
समझा जाए तुम्हे भी
उतना ही प्यारा
उतना ही पवित्र
सच्ची में खूबसूरत हो न तुम
तुम तो सांझ की सहेली बन
मासूमियत के पैकिंग से लकदक
बस थिरको बच्चो संग
लाल फ्रॉक और पीले रिबन में
उनके मैदान में
मंकी बार्स पर लटकते हुए
और होंठ के कोने से पिघलती रहे
केडबरी सिल्क की कुछ बूंदे
मैं भी हूँ बेशक बहुत दूर
पर इस सुबह के
लाल इश्क ने
कर दिया न मजबूर
तुम्हे निहारने को !!
सुनो !
चमकते रहना !
3⃣ अमीबा
'अमीबा' हो गयी हैं
मरती हुई
संवेदनाएँ
पोखर, गड्ढे, तालाबों के
थमे हुए पानी में
बजबजाती फिर रही हैं
अमीबा
कुंकुआती आवाज़ वाले हॉर्न
दौड़ती भागती मेट्रो टैक्सियों के जाल में
बिना रुके बिना थके
कंकड़ पत्थर के जंगलों में
लौटने को आतुर
ये ज़िंदगी
प्रोटोप्लास्म की ढेर में सिमटी
परिजीवियों की तरह जीते हुए
अपने एक-कोशकीय जीवन को
आकार बदलती ज़िंदगी से
करते रहे हैं रूबरू
जी रहे हैं
कूपमंडूकता संजोये
जैसे प्रतिकूल मौसम में, शैल में स्वयं को बचाए
अमीबा सी हो गयी हैं न संवेदनाएँं
प्लास्टिक 'ओह! आह!' की
निकालते हैं आवाज़
बहा देते हैं जल धाराएँ
जैसे अमीबा ने आगे बढ़ने को
निकाले हों कूटपाद
समय और मौसम के अनुसार
परिवर्तित होती संवेदनाएँ
लोटपोट होतीं, विचरतीं
एक के मरने पर अट्टहास
तो एक के मरने पर
आंसू के दरिया बहाते
बढती है ताउम्र
अमीबा सी संवेदनाएँ
एक पल रोते
दूसरे ही पल हंस कर बता देते हैं
अमीबा सी टुकड़ों में बंट कर भी
कई केन्द्र्कों वाली परजीविता के साथ
जी रही है संवेदनाएँ
विलुप्तप्राय संवेदनाओं
शब्दों के मकड़जाल से
उलझकर
छलछलाती हुई
नमन/वंदन/आरआईपी (रीप) कहते
इतरा कर चल पड़ती हैं
नए प्रतिरूप की तरफ़
वाकई
अमीबा हो चुकी हैं
संवेदनाएँ!
4⃣ प्रेम का भूगोल
प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
विस्मृत करते झक्क दूधिया बादल तैर रहे,
मिलते हैं स्त्री-पुरुष
प्रेम का परचम फहराने
सलवटों की फसल काटने !
नहीं बहती हवाएं, उनके मध्य
शायद इस निर्वात की स्थापना ही,
कहलाता है प्रेम !
याद रखने वाला तथ्य है कि
अधरों के सम्मिलन की व्याख्या
बता देती है७
मौसम बदलेगा, या
बारिश के उम्मीद से रीत जाएगा आसमां !
समुद्र, व उठते गिरते ज्वार-भाटा का भूगोल
देहों में अनुभव होता है बारम्बार
कर्क-मकर रेखाओं के आकर्षण से इतर!
मृग तृष्णा व रेगिस्तान की भभकती उष्णता
बर्फीले तूफ़ान के तेज के साथ कांपता शरीर,
समझने लगता है ठंडक
दहकती गर्मी के बाद
ऐसे में
तड़ित का कडकना
छींटे पड़ने की सम्भावना को करता है मजबूत
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
बारिश के उद्वेग के बाद
है निकलना धनक का
कि जिस्म के प्रिज्म के भीतर से
बहता जाता है सप्तरंगी प्रकाश !
कुछ मधुर पल की शान्ति बता देती है
कोलाहल समाप्त होने की वजह है
हाइवे से गुजर चुकी हैं गाड़ियाँ
फिर
पीठ पर छलछला आए
ललछौंह आधे चांद, जलन के बावजूद
होती है सूचक, आश्वस्ति का
यानी बहाव तेज रहा था !
भोर के पहले पहर में
समुद्र भी बन उठता है झील
शांत व नमक से रीती
कलकल निर्झर निर्मल
और हाँ
भोर के सूरज में नहाते हुए
स्त्री कहती है तृप्त चिरौरी के साथ
कल रात
कोलंबस ने पता लगा ही लिया था
हिन्द के किनारे का !!
वैसे भी जीवन का गुजर जाना
जीवन जीते हुए बह जाना ही है
कौन भला भूलता है
'प्रवाह' नियति है !
✒ मुकेश कुमार सिन्हा
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