🔺लाल फ्रॉक वाली लड़की🔺
प्रेम कथाएँ : मुकेश कुमार सिन्हा
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प्रेम कथाएँ : मुकेश कुमार सिन्हा
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जब यह लड़की घर आई, लग गया था पक्की शैतान मेरा मतलब चंचल है। हुआ यूँ कि जब कोरियर आया, श्रीमती जी ने पैकेट लिया (आदतन)। उनके आने के बाद से यही होता है। मेरे नाम से आने वाली डाक की स्केनिंग होकर ही आती है मेरे पास। खोला तो नन्ही-मुन्नी, छुटकू सी पुस्तक देखी। बोलीं इत्तू सी किताब....
बेटा बोला टाइटल पड़कर "फ्रॉक वाली बच्ची है.... कोई 100 किलो वाली आंटी नहीं" । 😆
सपना जी ने भी उसकी बात से सहमत होकर कहा किन्नी प्यारी है न...... हम समझ गये अब मिलना मुश्किल है फिलहाल। उनका लाड़ जागना मतलब इंतज़ार अपनी बारी का। शुक्र है एक दिन में ही आ गई। बोधि प्रकाशन से जनवरी 18 में प्रकाशित 124 पृष्ठ वाली इस किताब का मूल्य 120 रुपये है।
लघु प्रेम कथाओं की अर्द्ध शतकीय पारी में नाबाद रहे हैं मुकेश जी। इतनी सधी हुई बल्लेबाजी (कलमकारी) हुई है कि लग रहा था इसे शतकीय पारी होना था।
छोटी-छोटी लेकिन प्रभावित करती रचनाओं में प्रेम को जिस तरह से उकेरा गया है वह सहज व स्वाभाविक लगता है। लेखक के अॉव्जर्वेशन व सेंस अॉफ ह्यूमर की तारीफ़ की जाना जरूरी है। शुरुआत में एक कविता के माध्यम से लाल फ्रॉक वाली लड़की से मुखातिब हुए और फिर शुरू हुआ सफ़र कथा का या कहिये उस मानवीय व्यवहार का जिसे मनोविज्ञान प्यार कहता है। कभी बाइक कभी रेलगाड़ी तो कभी एक्टिवा पर लरजते, सिहरते युवाओं के मध्य पनपता प्रेम जिसे बखूबी शब्दों में सहेजा है सिन्हा जी ने।
बेटा बोला टाइटल पड़कर "फ्रॉक वाली बच्ची है.... कोई 100 किलो वाली आंटी नहीं" । 😆
सपना जी ने भी उसकी बात से सहमत होकर कहा किन्नी प्यारी है न...... हम समझ गये अब मिलना मुश्किल है फिलहाल। उनका लाड़ जागना मतलब इंतज़ार अपनी बारी का। शुक्र है एक दिन में ही आ गई। बोधि प्रकाशन से जनवरी 18 में प्रकाशित 124 पृष्ठ वाली इस किताब का मूल्य 120 रुपये है।
लघु प्रेम कथाओं की अर्द्ध शतकीय पारी में नाबाद रहे हैं मुकेश जी। इतनी सधी हुई बल्लेबाजी (कलमकारी) हुई है कि लग रहा था इसे शतकीय पारी होना था।
छोटी-छोटी लेकिन प्रभावित करती रचनाओं में प्रेम को जिस तरह से उकेरा गया है वह सहज व स्वाभाविक लगता है। लेखक के अॉव्जर्वेशन व सेंस अॉफ ह्यूमर की तारीफ़ की जाना जरूरी है। शुरुआत में एक कविता के माध्यम से लाल फ्रॉक वाली लड़की से मुखातिब हुए और फिर शुरू हुआ सफ़र कथा का या कहिये उस मानवीय व्यवहार का जिसे मनोविज्ञान प्यार कहता है। कभी बाइक कभी रेलगाड़ी तो कभी एक्टिवा पर लरजते, सिहरते युवाओं के मध्य पनपता प्रेम जिसे बखूबी शब्दों में सहेजा है सिन्हा जी ने।
विज्ञान विषय के विद्यार्थी रहने से वैज्ञानिक शब्दावली का बेहतरीन उपयोग करते हैं आप लेखन में। संवादों में प्रयुक्त यह शब्द सौंदर्य बढ़ाने के साथ संप्रेषण को भी प्रभावी बना देते हैं। साथ ही देशज शब्दों का भी सफलता से प्रयोग किया है। थेथरई - दोस्तों की में थेथर, बे, बुरबक, जइसन शब्द गुदगुदाते हैं। दूसरी ओर विशुद्ध रूमानी अंदाज़ जैसे-
उम्मीद शायद सतरंगी या लाल फ्रॉक के साथ, वैसे रंग के ही फीते से गुँथी लड़की के मुस्कुराहटों को देखकर मर मिटना या इंद्रधनुषी खुशियों की थी, जो स्मृतियों में एकदम से कुलबुलाई। (पृष्ठ 25-मानसून)
कथा बुनने के लिये जिन दृश्यों को चुना है वे आम ज़िंदगी से उठाये लगते हैं। हाउसफुल मूवी में टिकट न मिलने से लड़के का लड़की से टिकट निकालने का कहना। लड़की की झिड़की पर बिना भड़के इंटरवल में मूंगफली लाने का अॉफर.... लड़की के होठों पर आई हँसी और वही कहावत हुई चरितार्थ 'हँसी तो.....' ।
सड़क पर कार और स्कूटर के एक्सीडेंट की परिणति प्यार भी हो सकती है और वो भी दुनिया की सबसे बेरोमांटिक जगह गैराज में.... जी हाँ। सरासर हो सकती है।
लड़की की खूबसूरती और उसके चेहरे पर दर्द का कॉकटेल बियर के गिलास से ढभकते बुलबुले की तरह लड़के पर प्यार का फुहार कर चुका था।
लड़के ने हाथ बढ़ा कर लड़की को उठाया। लड़की ने भी हलके से व्हिस्पर किया-सॉरी, ताकि भीड़ को सुनाई न पड़े।
कुछ देर बाद दोनों पास के गैरेज से कार और स्कूटर ठीक करवा रहे थे, बिल मध्यम आय वर्गीय लड़के ने अपने क्रेडिट कार्ड से पे किया।
पनप गया था कुछ उस टक्कर में जो स्टील के गिलास में लस्सी पीते हुए पल्लवित हो रहा था। (मरखड़ गैया-पृष्ठ 101)
कुल मिलाकर इस संग्रह की हर एक कहानी पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है और अंत में छोड़ जाती है मीठी सी मुस्कान। रेनिंग विथ कैट्स एन डॉग्स, नोटबंदी, क्रश, पाइथोगोरस प्रमेय, व्हाई शुड बॉयज हेव अॉल द फन, इनबॉक्स भी इस संग्रह की लाजवाब कहानियाँ हैं।
हल्के-फुल्के मूड की, कुछ चुलबुली कुछ शांत सी प्रेमरस में पगी कहानियाँ जिन्हें पढ़ते हुए उम्र का वो मोड़ याद आता है जिसके लिये किसी शायर ने कहा है -
मोड़ होता है जवानी का सम्हलने के लिए,
लोग इस मोड़ पर आकर फिसलते क्यों हैं ?
मगर रपटने, फिसलने का मजा भी अलग होता है..... मुकेश कुमार सिन्हा जी इस बेहतरीन लेखन के लिए ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएँ।
©मुकेश दुबे
करुणावती साहित्य धारा के अक्टूबर वार्षिकांक में मेरी एक शुरुआती दौर की कविता "बीड़ी बनाते बच्चे" । |
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