कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Monday, April 30, 2018

आज का समय : आलोचना का समय

सच्चाई कहूँ तो हमे आजकल सिर्फ आलोचना करना आ गया है, हम सबने पहले से तय कर लिया की हमारी आँखे क्या देखेगी, हम किसको किस हद तक गिराना चाहते, किसको किस हद तक गिरा हुआ देखने के बावजूद उसमे देवत्व देखेंगे, ये भी हमने सोचा हुआ है|
हम सबने अपनी संवेदनाओं को भी इस तरह से मुट्ठी में बांध लिया कि मृत्यु/बलात्कार तक में नाटक नजर आता है, हम कौड़ियों में उछलने लगते हैं , हम स्त्री विमर्श के लिए झंडा उठाते हुए चुपके से अपने आगे खड़ी स्त्री को ही चिकोटी काट लेते हैं । हम साथ साथ हैं ये दिखाते हुए एक दूसरे के हथेलियों को बेशक पकड़े रहें पर व्हिस्पर करते हुए चिल्ला देते हैं मेरे झंडे की लंबाई तुमसे अधिक है, या झंडे के रंग पर ही छीछालेदर करने लगते हैं।
नाटक की पटकथा कितनी फिल्मी सी हो गयी है न, बड़ेबड़े तीसमारखां टाइप अभिनेता भी अपने पक्ष को बड़े प्यार से सिद्ध कर देते हैं और हम जोर लगाकर हाइसा के तर्ज पर चिल्ला उठते हैं ठीके बोले ।
अजी गोली मारिये, हम तो जी रहे, जीते रहेंगे पर स्वयं को तो ऐसे स्थिति में कमतर तो मत कीजिये जिससे कभी खुद रोएं तो हम स्वयं को समझाने लगे कि अरे मैं तो नाटक कर रहा था।
समय कठिन है, पहले जागरण देवी माँ के आराधना के लिए होता था अब ये भी अपने हिसाब से जयकारा लगाते हैं।
हाँ, दुसरे के दर्द में खिलखिलाहट ढूंढने वाले हम फेसबूकिया सिर्फ अपने संवेदनाओं को मरते देख रहे, और कुछ नहीं बदलने वाला ........... !
मरिये, सब मरेंगे, पता नहीं मरने की वजह क्या हो, कब हो और क्यों हो ! शोक सभा में भी आत्मा की शांति के बदले इनदिनों नजर घड़ी पर रहती है तीन मिनट बोलकर 30 सेकंड में सभा समाप्त हो जाता है।
सॉरी बॉस, हर नाटक का पटाक्षेप हम क्यों करें, समय हर घाव को दाग भर देखता है, पर हर दाग अच्छे हों जरुरी नहीं .........साथ ही याद रखियेगा, देश भी माँ है और स्त्री विमर्श का झंडा जिसके लिए उठाये वो भी स्त्री यानी मां और जिसको चिकोटी काटे वो भी मां....!! सोचना ये है कि हमें कहाँ रहना चाहिए। सोचना तो हर के को पड़ेगा ही, स्त्रियों को भी .......... !
~मुकेश~





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